ये तो हम सभी जानते हैं कि गांधी जी सत्य, शांति और अहिंसा के सबसे बड़े पुजारी थे. उन्होनें अहिंसा को ही हथियार बनाकर देश को आजाद कराया था. लेकिन अगर आज गांधीजी होते तो रूस-यूक्रेन युद्ध को लेकर उनका क्या रुख रहता. ये बड़ा सवाल है. ये कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर के बाद अहिंसा को किसी ने अगर सही मायने में अपने जीवन में उतार है और अपने समकालीन समय को भी मनवाया तो वो गांधीजी ही हैं. लेकिन गांधी जी के युग में ही एक नहीं, दो-दो विश्वयुद्ध (प्रथम और द्वितीय) हुए थे।
रूस-यूक्रेन युद्ध के समय जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मुलाकात की तो उन्होनें सबसे पहले यही कहा कि “ये युग युद्ध का नहीं है.” ये कही न कही हमें गांधी जी की शिक्षाओं और विचारों का याद दिलाता है. तो ऐसे में हमें गांधी के युग में ही जाना होगा. क्योंकि उस वक्त तो हमारे मानव-जाति के दो सबसे बड़े युद्ध लड़े गए थे–फर्स्ट वर्ल्ड वॉर और सेकंड वर्ल्ड वॉर. लेकिन हम थोड़ा और पीछे चले जाते हैं तो पता चलेगा कि गांधीजी ने खुद एक बार युद्ध में हिस्सा लिया था।
साउथ अफ्रीका में जब गांधी जी वकालत के बाद अपना समय बीता रहे थे तो उस वक्त ‘बोअर वॉर’ (1899-1902) छिड़ गया था. तो गांधीजी ने उसमें ‘एंबुलेंस कोर’ के सदस्य के तौर पर हिस्सा लिया था. उन्हें ‘रिक्रूटिंग-सार्जेंट मेजर’ के नाम से भी जाना जाता था. इससे भी बड़ी बात ये कि उन्होनें युद्ध के दौरान ‘वॉर-कोरेस्पोंडेंट’ के तौर पर काम किया था. युद्ध में जो घट रहा था उसकी रिपोर्टिंग वे मुंबई के टाइम्स ऑफ इंडिया अखबार के लिए करते थे. ऐसे में मान सकते हैं कि महाभारत के संजय के बाद भारत में कोई दूसरा सबसे बड़ा वॉर-कोरेस्पोंडेंट हुआ है तो वो गांधीजी ही थे।
लेकिन गांधीजी आज के समय के वॉर-कोरेस्पोंडेंट नहीं थे. यहां तक की उनके समकालीन एक और वॉर-कोरेस्पोंडेंट था, जो उनका सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता था. वो था विंस्टन चर्चिल, जो बाद में इंग्लैंड का प्रधानमंत्री बना था. चर्चिल भी बोअर वॉर में एक कोरेस्पोंडेंट के तौर पर एक अखबार के लिए रिपोर्टिंग करता था. लेकिन दोनों वॉर-कोरेस्पोंडेंट की लेखन-शैली को देखेंगे तो धरती-आसमान का अंतर है. चर्चिल जहां वॉर-फ्रंट में सेना की मूवमेंट, एक्सपोज, खुलासों, हथियारों और सैनिकों के बारे में मिलिट्री-डिस्पैच भेजता था, गांधी जी क्योंकि एंबुलेंस कोर के सदस्य थे, वे सैनिकों की पीड़ा, किस तरह सैनिकों को एंबुलेंस कोर मदद करती थी युद्ध के मैदान में, आम लोगों पर इस युद्ध का क्या असर पड़ रहा है इसको लेकर लिखते थे. यानि गांधी जी की लेखनी में मानवता का भाव था।
गांधी जी पत्रकार क्यों बने, ये भी एक दिलचस्प कहानी है. दरअसल, मोहनदास करमचंद गांधी बोलने में हिचकिचाते थे और लोगों के सामने शर्माते थे. इसलिए उन्होनें इंग्लैंड में शाकाहारी खाने और शाकाहारी जीवन शैली पर लिखना शुरु किया था. वे एक वकील थे उसके बावजूद वे लोगों के बीच बोलने में कॉम्पलेक्स फील करते थे. इसलिए लिखना शुरू किया. साउथ अफ्रीका में उनके साथ जो बर्ताव हुआ, वहां जो राजनीतिक परिदृश्य था, जो भारत में था, पूरी दुनिया में जो उथल पुथल चल रही थी, वो उनके दिमाग में एक लावा की तरह इकठ्ठा हो रही थी….उस ज्वालामुखी के लिए अखबार में लिखना एक वेंट की तरह काम किया।
महात्मा गांधी जब भारत लौटे तो हरिजन, इंडियन ओपनियन, यंग इंडिया और नवजीवन जैसे अखबारों को शुरु किया, उनके एडिटर बने, रिपोर्टर बने और मैनेजर तक बने. यानि वन मैन आर्मी की तरह काम किया. लेखक भी उनके इन अखबारों के साथ कहीं न कहीं जुड़ा रहा. क्योंकि जो कंपनी ‘एसोसिएटेड प्रेस’ इन अखबारों को चलाती थी, उसी कंपनी (ट्रस्ट) के एक अखबार से इस सदी की शुरूआत में मैंने अपने जर्नलिस्ट कैरियर की शुरूआत की थी. हालांकि, तब तक गांधीजी के ये अखबार बंद हो चुके थे।
गांधी जी के शुरूआती जीवन में जिन लोगों ने अपना प्रभाव छोड़ा था उनमें से एक थे रूस के महान लेखक लियो टॉलस्टॉय. वे रूस के एक शाही परिवार से ताल्लुक रखते थे और सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर थे. उन्होनें 19वीं सदी के मध्य में लड़ी गई क्रीमिया-वॉर (1853-56) में हिस्सा लिया था. लेकिन सम्राट अशोक की तरह टॉलस्टॉय का भी युद्ध की वीभत्सा देखकर मन बदल गया और सेना की नौकरी छोड़कर सामाजिक सुधार और लेखन में पूरा जीवन व्यतीत किया. क्रीमिया युद्ध पर उन्होनें ‘सेवास्तोपोल डायरी’ नाम की पुस्तक लिखी थी. इसके अलावा ‘वॉर एंड पीस’ की गिनती दुनिया के महान साहित्य में की जाती है. गांधी जी को भले ही टॉलस्टॉय से मिलने का मौका कभी न मिला हो लेकिन वे चिठ्ठी के जरिए उनसे संपर्क में रहते थे. साउथ अफ्रीका में गांधी जी ने अपने आश्रम का नाम ही रख दिया था ‘टॉलस्टॉय फार्म’.
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1919) का गांधी जी ने खुद समर्थन किया था. यहां तक की उन्होनें भारत के लोगों को युद्ध में ब्रिटेन की मदद करना का आह्वान किया था. क्योंकि उन्हें लगता था कि अगर इंग्लैंड जीत गया तो भारत को (थोड़ी बहुत) आजादी जरूर दे देगा. गांधी जी ने खुद वायसराय द्वारा आयोजित वॉर-कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया था. गांधी को लगा कि युद्ध में जीतने के बाद इंग्लैंड अगर पूरी आजादी नहीं तो ‘सेल्फ-रूल’ तो देगा ही. लेकिन इंग्लैंड ने फर्स्ट वर्ल्ड वॉर जीतने के बाद भारत को दिया ‘रौलेट एक्ट’ जिसमें अंग्रेजी शासन को बिना ट्रायल के गिरफ्तार कर जेल भेजने का अधिकार मिल गया।
खुद गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के लिए रिक्रूटिंग-सार्जेंट मेजर के तौर पर काम करते हुए भारतीय सैनिकों की भर्ती में मदद की थी. पहले विश्व युद्ध में भारत के करीब 13 लाख सैनिकों ने हिस्सा लिया था. 74 हजार सैनिक, जी हां 74 हजार सैनिकों ने दुनिया के अलग-अलग रणक्षेत्र में मिट्टी के ट्रेंचेज में लड़ते हुए बलिदान दिया और 67 हजार सैनिक घायल हुए थे. इस युद्ध में अकेली पंजाब रेजीमेंट को 18 बैटल और थियेटर ऑनर्स मिले थे. रेजीमेंट के सैनिकों ने फ्रांस में नेयुवे-चैपल की लड़ाई में हिस्सा लिया था और लूस और फ्रांस एंड फ्लैंडर्स जैसे ऑनर मिले थे. इसके अलावा ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने मेसोपोटामिया यानि इराक, लीबिया के गैलीपोली, फिलिस्तीन, इजिप्ट, चीन, हॉन्गकॉन्ग, डैमसकस यानि सीरिया में भी युद्ध लड़े थे।
गांधी जी को लगता था कि ब्रिटेन के सामने युद्ध की जो चुनौती आई है उसे भारतीयों को अवसर में नहीं तब्दील करना चाहिए. क्योंकि ये उनके ‘मीन्स टू एंड’ सिद्धांत के विपरीत था।
ठीक इसी तरह द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत के 25 लाख सैनिकों ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी के तौर पर हिस्सा लिया था. पहले विश्व युद्ध की तरह ही भारतीय सैनिकों ने एशिया से लेकर अफ्रीका और यूरोप तक हर थियेटर में अपनी वीरता और साहस का लोहा मनवाया था. इस में अकेले पंजाब रेजीमेंट को ही 16 बैटल ऑनर्स और 14 थियेटर ऑनर्स से नवाजा गया था।
इस सबके बावजूद ना तो हॉलीवुड में और ना ही पश्चिमी मीडिया में भारतीय सैनिकों की बहादुरी और बलिदान का कोई जिक्र किया जाता है. लेकिन अब मायूस होने का वक्त चला गया है. क्योंकि इसी साल 14 जुलाई को पेरिस में ‘बैस्टिल-डे’ परेड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में भारतीय सेना की पंजाब रेजीमेंट, भारतीय वायुसेना और इंडियन नेवी के कुल 269 योद्धा दुनिया को भारत का दमखम दिखाया और भुला दिए गए इतिहास को भी याद दिलाया.
गांधी जी का मानना था कि युद्ध में हार-जीत का कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. क्योंकि जीतने वाला भी हारे हुए इंसान जैसा ही हो जाता है. वे महायोद्धा अर्जुन का उदाहरण देते थे जो महाभारत के युद्ध में अपने सभी प्रतिद्वंदियों पर विजय हासिल करने के बाद भी छुटभैया चोरों के हाथों लुट गया था. महाभारत के युद्ध के बाद अर्जुन अपना गांडीव चलाना तक भूल गया था. शायद यही द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन का भी हुआ. युद्ध में जीत के बावजूद इंग्लैंड कमजोर हो गया था. गांधी जी के नेतृत्व में सत्याग्रह और आंदोलन तथा मुंबई में नौसेना में विद्रोह और देश में सुभाष चंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) को मिले समर्थन से ब्रिटिश-राज को समझ आ गया था कि अब भारत में ज्यादा दिन नहीं रोका जा सकता है. यही वजह है कि भारत से बोरिया-बिस्तर समेटकर अपनी सबसे बड़ी कॉलोनी को हमेशा हमेशा के लिए छोड़ दिया. वो बात और है कि जाते-जाते भी देश का बंटवारा कर पाकिस्तान को अलग देश बना दिया.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान गांधी जी ने अपने सभी आंदोलन स्थगित कर दिए थे. लेकिन युद्ध से पहले उन्होनें हिटलर को चिट्ठी लिखकर युद्ध रोकने की अपील जरूर की थी.
15 अगस्त 1947 को मिली आजादी के महज दो महीने के भीतर ही पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर आक्रमण कर दिया और भारत और युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा. गांधी जी और उनके सबसे प्रिय शिष्य जवाहर लाल नेहरू, जो देश के पहले प्रधानमंत्री बने थे, दोनों ही सेना और सैनिकों के खिलाफ रहते थे. नेहरू ने तो सेना को खत्म करने का विचार ही बना लिया था. दोनों मानते थे कि भारत पुलिस से काम चला सकता है. लेकिन इसका खामियाजा एक बार नहीं दो-दो बार उठाना पड़ा.
1947-48 के युद्ध में भारत को जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के हाथों खोना पड़ा, जो आज पीओके यानि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर कहलाता है. पाकिस्तान पीओके को आजाद कश्मीर का नाम देता है. इस आजाद कश्मीर के पाकिस्तान ने अब दो हिस्से कर दिए हैं. गिलगित-बाल्टिस्तान को आजाद कश्मीर से अलग एक प्रांत बना दिया है. गांधी जी इस युद्ध के दौरान जिंदा थे लेकिन उनके विचार इसपर कम ही सुनने और पढ़ने को मिलते हैं. संभव है कि गांधी जी उस वक्त देशभर में फैले हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों में व्यस्त थे. बाद में 1962 में चीन युद्ध के दौरान अक्साई चिन भी भारत को खोना पड़ा.
क्या गांधी जी सेना के खिलाफ इसलिए थे क्योंकि उन्होनें भारत को एक राष्ट्र के तौर पर नहीं देखा था. वे एक गुलाम देश में रहते थे. ये ऐसे सवाल हैं जिनपर रिसर्च होनी बाकी है. क्योंकि अगर किसी देश की सेना नहीं होगी तो उसका हाल ‘मत्स्य न्याय’ जैसा ही हो सकता है यानि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाएगी. भारत के साथ ऐसा 1962 के युद्ध में एक बार हो चुका है. इस युद्ध के बाद नेहरू जी को भी समझ आ गया था कि अगर युद्ध को टालना है तो युद्ध के लिए तैयार रहना पड़ेगा. युद्ध के लिए तभी तैयार हो सकते हैं जब राष्ट्र के पास एक मजबूत सेना होगी.
ऐसा नहीं है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना होने के नाते भारत ने महात्मा गांधी के विचारों को तिलांजलि दे दी है. भारत आज भी उस रणनीति पर चलता है कि दूसरे देश पर बिना किसी कारण के आक्रमण नहीं करना है. ‘मिलिट्री-डिप्लोमेसी’ भी उसी का नतीजा है. गांधी जी का अहिंसा का विचार अगर भारत में कही उल्लेखित होता है तो वो कूटनीति है. हाल ही में जी-20 सम्मेलन में भारत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर ‘न्यू दिल्ली लीडर्स डिक्लेरेशन’ को सभी देशों की सहमति से जारी कर पाए तो ये उसी के कारण है. यूक्रेन युद्ध के बीच भी अगर भारत अनाज संधि के लिए रूस को सहमत करवा पाया है तो ये गांधी जी के मानवता की ही सीख के कारण ही संभव हो पाया.
जी-20 सम्मेलन के दौरान जब कई राष्ट्राध्यक्षों ने रूस के विदेश मंत्री के साथ ग्रुप फोटो में शामिल होने पर आपत्ति जताते हुए मना कर दिया तो भारत ने गांधी जी की समाधि राजघाट पर सभी को बुलाकर तस्वीर खींचकर इसका हल निकाल लिया. क्योंकि भारत जानता है कि आज भी अगर पूरी दुनिया किसी ऐसी शख्सियत के लिए न केवल एक मंच पर इकठ्ठा हो सकती है बल्कि नतमस्तक भी हो जाती है वो गांधी ही है जिसने पूरी दुनिया को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाया है.
(नीरज राजपूत देश के जाने माने वॉर कोरेस्पोंडेंट हैं और रुस-यूक्रेन युद्ध पर ‘ऑपरेशन Z लाइव’ (प्रभात प्रकाशन) नाम की पुस्तक लिखी है. लेखक का ये लेख हाल ही में केंद्रीय विश्वविद्यालय झारखंड के गांधी स्टडी सेंटर में गांधी और रुस-यूक्रेन युद्ध पर दिए व्याख्यान पर आधारित है।)