भारत और रूस द्वारा बनाई गई ब्रह्मोस मिसाइल के पहले खरीदार यानी फिलीपींस जा रहे हैं विदेश मंत्री एस जयशंकर. क्योंकि मालदीव के साथ मिलकर चीन की चालबाजी के खिलाफ भारत ने तैयार कर लिया है फुल-प्रुफ बैकअप प्लान. हिंद महासागर में जहां चीन की शह पर मालदीव ने टर्की का खतरनाक ड्रोन खरीदकर आंख दिखाने की कोशिश की है, तो वहीं दक्षिण चीन सागर में चीन पर नकेल कसने के लिए फिलीपींस ने भारत से ब्रह्मोस मिसाइल खरीदी हैं.
ब्रह्मोस के पहले निर्यातक देश जा रहे विदेश मंत्री
विदेश मंत्री एस जयशंकर फिलीपींस के दौरे पर जा रहे हैं. फिलीपींस के अलावा सिंगापुर और मलेशिया भी जा रहे हैं एस जयशंकर. विदेश मंत्रालय के मुताबिक, एस जयशंकर 23-27 मार्च तक पांच दिवसीय विदेश यात्रा पर जा रहे हैं. एस जयशंकर का फिलीपींस दौरा इसलिए अहम है क्योंकि दक्षिण चीन सागर में अक्सर चीन और फिलीपींस में तनातनी देखने को मिलती है. कुछ महीनों पहले फिलीपींस की सप्लाई बोट पर चीन के कोस्टगार्ड के जहाज ने टक्कर मारी थी. भारत ने दक्षिण चीन सागर में क्षेत्रीय विवादों पर फिलीपींस का समर्थन किया है. हाइड्रोकार्बन के स्रोत माने जाने वाले दक्षिण चीन सागर पर संप्रभुता के चीन के दावों को लेकर दुनिया में टेंशन बढ़ रही है. ऐसे में एस जयशंकर कि फिलीपींस के दौरे पर पूरी दुनिया की नजर टिक गई है.
विदेश मंत्री का फिलीपींस दौरा इसलिए भी अहम माना जा रहा है कि क्योंकि चीन ने हाल ही में मालदीव से मिलिट्री एग्रीमेंट किया है जिसके तहत चीन ने मालदीव की सैन्य मदद करने का आश्वासन दिया है. भारत से भौगोलिक नजदीकियों के कारण ये भारत के लिए खतरे की घंटी जैसा है.
पटरी पर लौट रहे भारत-मलेशिया में संबंध
भारत और मलेशिया के बीच साल 2019 से संबंध बेपटरी हो गए थे. मलेशिया के तत्कालीन पीएम महाथिर मोहम्मद ने संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र में कश्मीर को लेकर ऐसी बयानबाजी की थी, जिससे भारत भड़क गया था. पीएम महाथिर ने कहा था कि भारत ने जबरन कश्मीर पर नाजायज कब्जा किया हुआ है. मलेशिया के पीएम की ओर से आई इस टिप्पणी पर भारत की ओर से तीखी प्रतिक्रिया दी गई.जिसके बाद भारत और मलेशिया के संबंध खराब हो गए थे. पर एक बार फिर साल 2022 में सत्ता परिवर्तन के बाद पीएम अनवर इब्राहिम ने भारत के साथ संबंधों को सुधारने की कोशिश की है. ऐसे में विदेश मंत्री एस जयशंकर का मलेशिया दौरा संबंधों को और मजबूत करने का काम करेगा.
सिंगापुर में विदेश मंत्री की द्विपक्षीय वार्ता
सिंगापुर और भारत में संबंध बेहद ही अच्छे हैं. सिंगापुर दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान) में भारत के सबसे करीबी साझेदारों में से एक है और दोनों पक्षों के बीच व्यापार से लेकर रक्षा और सुरक्षा तक के क्षेत्रों में घनिष्ठ संबंध हैं. हाल ही में भारत और सिंगापुर में संबंधों को मजबूत करने के लिहाज से ने तत्काल फंड ट्रांसफर की डिजिटल सेवा शुरु की गई है. इसके अलावा भारतीय वायुसेना की सारंग हेलीकॉप्टर एयरोबैटिक्स टीम ने सिंगापुर एयर शो में हिस्सा लिया था (10-25 फरवरी).
सिंगापुर से एस जयशंकर का खास लगाव भी है क्योंकि एस जयशंकर राजनीति में आने से पहले काफी समय उच्चायुक्त के तौर पर सिंगापुर में बिता चुके हैं.जयशंकर की तीन देशों की यात्रा द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने पर केंद्रित होगी और आपसी चिंता के क्षेत्रीय मुद्दों पर जुड़ाव का अवसर प्रदान करेगी.
चीन चैलेंजिंग और कंपेटेटिव पड़ोसी: एस जयशंकर
हाल ही में एक कॉनक्लेव में एस जयशंकर ने चीन के मुद्दे पर खुलकर बात की है. एस जयशंकर ने चीन को ‘चैलेंजिंग और कंपैटेटिव पड़ोसी’ बताया है. जयशंकर ने माना “अगर भारत को चीन से निपटना है तो भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था की जरूरत है जो इसके लिए तैयार हो.” 2020 के गलवान संघर्ष के बाद चीन के साथ भारत के संबंध खराब हुए. अभी चीन बहुत बड़ी संख्या में अपनी सेना एलएसी के पास तैनात किए हुए है. काउंटर में भारत ने भी अपने सैनिकों की तैनाती की है. एस जयशंकर ने कहा कि “चीन से निपटने के लिए पहले समस्या को पहचानना होगा. फिर इसके लिए खुद को तैयार करना होगा. फिर रिएक्शन दें और इसके बाद ही आप चीन को मैनेज कर सकते हैं.”
अमेरिका और यूरोपीय देशों को इतिहास की अधूरी जानकारी: एस जयशंकर
कॉनक्लेव में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सीएए के मुद्दे पर अमेरिका के बयान को लेकर जमकर लताड़ लगाई. भारत में अमेरिका के राजदूत एरिक गार्सेटी की ओर से सीएए की टिप्पणी पर एस जयशंकर ने कहा, “मैं अमेरिकी लोकतंत्र में दोष पर सवाल नहीं उठा रहा हूं. या उनके सिद्धांत या अन्य चीजों पर सवाल नहीं उठा रहा हूं. मैं उनकी उस समझ पर सवाल उठा रहा हूं, जो हमारे इतिहास के बारे में है. अगर आपके पास जानकारी नहीं है तो आप कहेंगे कि भारत का विभाजन कभी हुआ ही नहीं. वो समस्याएं पैदा ही नहीं हुईं, जिसे सीएए कानून में एड्रेस किया गया है. मैं इसका कई उदाहरण दे सकता हूं. अगर आप यूरोप को देखेंगे तो कई यूरोपीय देश उन लोगों की नागरिकता देने के लिए फास्ट ट्रैक अपनाते हैं जो विश्व युद्ध में कहीं छूट गए थे.”
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