July 5, 2024
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सेना को खत्म करना चाहते थे नेहरू, बाद में सैनिकों ने लिया अपमान का बदला

“हमारी (रक्षा) नीति अहिंसा की है. हमारे देश को किसी भी तरह किसी का बाहरी सैन्य खतरा नहीं है. आप चाहे तो सेना को डिसबैंड कर सकते हैं, हम पुलिस से काम चला लेंगे.” अहिंसा के माध्यम से मिली स्वतंत्रता के बाद जब देश के पहले कमांडर-इन-चीफ, जवाहरलाल नेहरू के पास डिफेंस-प्लान को लेकर पहुंचे तो पहले प्रधानमंत्री के यही शब्द थे. लेकिन आजादी के अमृत काल यानि 75 साल बाद देश की रक्षा-नीति पूरी तरह बदल चुकी है. अब भारत ‘छेड़ोगे तो छोड़ेंगे नहीं’ वाली रणनीति पर काम करता है. और इसके कई सामरिक कारण भी हैं।

1947 में अंग्रेजों से मिली आजादी के बाद से भारत एक-दो नहीं बल्कि पांच बड़े युद्ध लड़ चुका है. एक में बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा है. दो-दो बार अपनी जमीन दुश्मन के हाथों खो चुका है. दुश्मन अब बॉर्डर के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा में भी दखलंदाजी करता है. टू-फ्रंट वॉर यानि चीन और पाकिस्तान के साथ-साथ आतंकवाद और उग्रवाद जैसे ‘हाफ-फ्रंट’ पर भी सेना को दो-दो हाथ करना पड़ रहा है. इसलिए स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी यानि सामरिक स्वायत्तता बनाए रखने के लिए भारत को आज न केवल एक बड़ी सेना और आधुनिक हथियारों की जरूरत बल्कि दुश्मन को उसी की भाषा में जवाब देना भी बेहद जरूरी है. लेकिन इस सोच को आने में एक लंबा वक्त लग गया. फिर भी देर आए दुरस्त आए वाली कहावत से भारतवासी संतोष करना जानते हैं।

भारत को भले ही आजादी मुख्यत गांधी जी के बताए अहिंसा के रास्ते पर चलने से मिली थी लेकिन हमारे देश के रणनीतिकार शायद ये भूल गए कि अगर अंग्रेजों ने भारत पर 200 साल तक राज किया तो उसमें भारतीय सेना की एक अहम भूमिका थी. ब्रिटिश इंडियन आर्मी के चलते पूरे एशिया में अंग्रेजों ने अपनी न केवल अपनी बादशाहत कायम की बल्कि उसे बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाई थी।

इसी ब्रिटिश इंडियन आर्मी ने ही यूनाइटेड किंगडम (यूके) की तरफ से लड़ते हुए ही दोनों विश्व युद्ध में अपने बहादुरी, अदम्य साहस और संपूर्ण बलिदान से पूरी दुनिया का दिल जीता था. लेकिन जिस सेना को बनाने और खड़ा करने में करीब दो सौ साल लगे थे वो तीन महीने में ही देश के बंटवारे के साथ ही दो टुकड़ों में बंट गई थी।

बंटवारे के वक्त भारतीय सेना की कुल संख्या करीब 5 लाख की थी. जनसंख्या और क्षेत्रफल को ध्यान में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने एक-तिहाई सेना पाकिस्तान को दे दी. इसके साथ ही सैनिक, हथियार और दूसरे सैन्य साजो सामान सहित रेजीमेंट और बटालियन का बंटवारा भी कर दिया गया. गोरखा रेजीमेंट को भारत और ब्रिटेन के बीच बांट लिया गया. सैन्य अफसरों को ट्रेनिंग देना वाला स्टाफ कॉलेज क्योंकि बलूचिस्तान के क्वेटा में था इसलिए वो पाकिस्तान के हवाले कर दिया गया. भारतीय सेना को अपने ऑफिसर की ट्रेनिंग के लिए वेलिंग्टन में एक नया स्टाफ कॉलेज खोलना पड़ा।

ब्रिटिश राज में ऑर्डनेंस फैक्ट्री यानि गोला-बारूद बनाने वाली सभी इकाइयां भारत में थी इसलिए आजादी के बाद भारत को एक तिहाई फैक्ट्रियों की बराबर रकम पाकिस्तान को देनी पड़ी थी।

बंटवारे के समय भारतीय सेना में भारतीय मूल के एक ही ऑफिसर ही मेजर रैंक के थे. लेकिन वे भी मेडिकल कोर से ताल्लुक रखते थे. इसलिए सेना प्रमुख (कमांडर-इन-चीफ) एक अंग्रेज को ही बनाया गया. साथ ही भारत और पाकिस्तान का एक सुप्रीम कमांडर भी बनाया गया, वो भी एक अंग्रेज अफसर था।

ये अंग्रेज कमांडर इन चीफ थे ( सर) जनरल रॉब एम लॉकहार्ट और सुप्रीम कमांडर थे जनरल (सर) क्लाउड औचिनलेक. हमें सेना की जरूरत नहीं का वक्तव्य नेहरू जी ने इन्हीं जनरल लॉकहार्ट को दिया था. लेकिन विडंबना देखिए कि जिस देश को सेना की जरूरत नहीं थी, उसे आजादी के महज तीन महीने के भीतर ही युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा।

जिस पाकिस्तान को भारत ने अपनी एक तिहाई सेना दी थी, उसी ने अक्टूबर 1947 में कबाइलियों के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में आक्रमण कर दिया। पाकिस्तानी सेना प्रमुख (कमांडर इन चीफ) भी एक अंग्रेज अफसर ही था. करीब 15 महीने चले इस युद्ध में आखिरकार जनवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र के दखल के बाद युद्ध विराम समझौता हुआ. भारतीय सेना ने विपरीत परिस्थितियों में लड़कर जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से को बचा लिया था. लेकिन इस जम्मू कश्मीर का 13,300 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा पाकिस्तान के पास ही रह गया. उसी हिस्से को आज पीओके यानि पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर के नाम से बुलाया जाता है. पाकिस्तान द्वारा गैरकानूनी तरीके से कब्जा इस जम्मू कश्मीर (पीओजेके) की जनसंख्या करीब 40 लाख है. पाकिस्तान इस पीओके को ‘आजाद जम्मू कश्मीर’ का नाम देता है।

भारतीय सेना ने अपने पहले ही युद्ध में वीरता की पराकाष्ठा को छूते हुए एक दो नहीं पूरे पांच परमवीर चक्र प्राप्त किए. मेजर सोमनाथ शर्मा देश के पहले परमवीर चक्र विजेता बने. सभी पांचों सैनिकों को मरणोपरांत देश के सबसे बड़े वीरता मेडल से नवाजा गया. यानि जम्मू कश्मीर के लिए पांचों वीर सैनिकों ने सर्वोच्च बलिदान दिया था. इसके अलावा भारतीय सेना के 1000 से भी ज्यादा सैनिकों ने अपने प्राणों की आहूति दी थी. करीब 2000 सैनिक जम्मू कश्मीर रियासत के भी लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए जो भारतीय सेना के साथ मिलकर पाकिस्तान का मुकाबला कर रहे थे. पाकिस्तान को भी एक बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था. इस युद्ध में पाकिस्तान के करीब 6000 सैनिकों की जान गई थी।

जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से को खोने और 15 महीने युद्ध लड़ने के बावजूद तत्कालीन सरकार ने सेना को ज्यादा तवज्जो नहीं दी. सैनिकों की संख्या को कम करने पर जोर दिया गया. सैन्य आधुनिकीकरण को नजरअंदाज किया गया. रणनीति-जानकार और इतिहासकारों के मुताबिक, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका में जिन देशों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से छुटकारा मिला था, वहां सेना के तख्तापलट की खबरें रोज मिल रही थीं, ऐसे में सेना को काबू में करने के लिए सेना को ही कमजोर करने की रणनीति पर जोर दिया गया. 

लेकिन इस अदूरदर्शी सोच का गंभीर परिणाम देश को ‘62 के युद्ध में झेलना पड़ा. चीन ने अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया. अरुणाचल प्रदेश (उस वक्त नेफा) को पार कर चीन की पीएलए सेना असम तक पहुंच गई. भारतीय सैनिकों को हाई ऑल्टिट्यूड और ठंडे इलाकों में लड़ने की कोई ट्रेनिंग नहीं मिली थी. सैनिकों को पीटी (कैनवास) शूज में .303 राइफल से चीन की मशीन-गन का सामना करना पड़ा. चीन ने भारत के मुंह पर एक जोरदार ‘तमाचा’ जड़ दिया था जिसकी गूंज एक लंबे समय तक भारत में सुनाई पड़ती रही।

हालांकि, ‘71 के युद्ध में पाकिस्तान को हराकर भारत ने खोई इज्जत वापस लेने की कोशिश की थी, लेकिन चीन से थप्पड़ का बदला लेने में 58 साल लग गए. इसकी शुरूआत हुई पाकिस्तान के खिलाफ 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक और फिर 2019 में बालाकोट एयर-स्ट्राइक से. मिलिटरी हिस्ट्री में ये शायद पहली बार हुआ था कि आतंकवाद के खिलाफ किसी देश की वायुसेना ने दुश्मन देश में घुसकर एयर-स्ट्राइक की थी. पाकिस्तान छटपटा कर रह गया. आतंक को हथियार बनाकर भारत को ‘एक हजार घाव’ देने वाली पाकिस्तान की रणनीति को मिट्टी में मिला दिया गया. आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो-टोलेरेंस’ और एलओसी (लाइन ऑफ कंट्रोल) पर भारत की आक्रामक नीति का नतीजा ये हुआ कि फरवरी 2021 में पाकिस्तान ने भारत के साथ युद्ध-विराम समझौता किया ताकि विवादित सीमा पर शांति कायम की जा सके. ऐसे में तब से एलओसी पर दोनों ही तरफ से गोलाबारी बंद हो गई है।

लेकिन ‘छेड़ोगे तो छोड़ेंगे’ नहीं वाली रणनीति को पूरी तरह अमलीजामा पहनाया गया मई-जून 2020 में.  जिस वक्त पूरी दुनिया कोरोना महामारी से जूझ रही थी तब बेहद गुपचुप तरीके से चीन की पीएलए सेना ने युद्धाभ्यास की आड़ में पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ करने की कोशिश की. लेकिन इस बार भारतीय सेना चीन से दो-दो हाथ करने के लिए पूरी तरह तैयार थी।

अक्साई चिन से सटी गलवान घाटी में भारत और चीन की सेना एक बार फिर भिड़ गई थी. ये वही गलवान घाटी थी जहां ‘62 के युद्ध की शुरूआत हुई थी. 15-16 जून को भारत और चीन के सैनिकों में यहां भिड़ंत हुई. हालांकि दोनों तरफ से एक भी गोली नहीं चली लेकिन लाठी-डंडों, पत्थर और धारदार हथियारों से हुई इस झड़प में भारत के एक कर्नल रैंक के कमांडिंग ऑफिसर सहित 20 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए. चीन ने आधिकारिक तौर से हताहत हुए अपने सैनिकों का  आंकड़ा आज तक सार्वजनिक नहीं किया. इसका कारण ये था कि चीन की पीएलए सेना को बड़ी क्षति हुई थी. अमेरिका और रुस की मीडिया ने अपने-अपने देशों की इंटेलिजेंस एजेंसियों के हवाले से बताया कि चीन के कम से कम 40-45 सैनिक मारे गए थे।

गलवान घाटी की हिंसा कितनी भीषण थी इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि चीन ने सीसीपी यानि चाइनीज कम्युनिस्ट पार्टी के शताब्दी वर्ष में जिस सैनिक को पिछले 100 सालों का सबसे बड़ा वीरता मेडल दिया था उसकी मौत भारत के खिलाफ गलवान घाटी में हुई थी. एक पीएलए अफसर जो गलवान घाटी की हिंसा में गंभीर रूप से घायल हुआ था उसे चीन ने बीजिंग विंटर ओलंपिक की मशाल को लेकर दौड़ने वालों की लिस्ट में शामिल किया. यानि दुनिया की सबसे बड़ी सेना का दम भरने वाले चीन को गलवान घाटी में घाव गहरा लगा है. ऐसा घाव जिससे उबरने में शी जिनपिंग के चीन को एक लंबा वक्त लग सकता है।

‘62 के युद्ध के बाद एलएसी यानि 3488 किलोमीटर लंबी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल पर भारतीय सैनिकों को लाउडस्पीकर पर हड़काने वाली चीन की सेना पर भारतीय सेना किस तरह भारी पड़ गई. ये सब कुछ रातों रात नहीं हुआ था।

सबसे पहले तो भारतीय सेना ने अपनी बॉर्डर पर अपनी डिफेंसिव रणनीति को ऑफेंसिव में बदला. भारतीय सेना आज दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना है. भारतीय सेना में आज 13 लाख सैनिक हैं जो देश की ‘एक-एक इंच जमीन’ की रक्षा की खातिर सर्वोच्च बलिदान के लिए तो तैयार हैं साथ ही घुसपैठियों की जान लेने से भी नहीं हिचकिचाते. पहले चीन से सटी एलएसी पर भारतीय सेना अपनी सीमाओं की चौकसी करने में विश्वास करती थी. लेकिन अब भारतीय सेना ‘ओफेंस इज द बेस्ट डिफेंस’ पर अमल कर रही है।

पिछले एक दशक से भारत इस रणनीति पर काम कर रही है. इसका पहला उदाहरण देखने को मिला था अप्रैल 2013 में जब चीन ने पूर्वी लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) में घुसपैठ की कोशिश की तो भारतीय सेना ने भी पीएलए सेना के तंबुओं के सामने अपना कैंप लगा लिया. 25 दिन चले फेस-ऑफ यानि गतिरोध के बाद राजनीतिक और डिप्लोमेटिक स्तर से बातचीत के जरिए विवाद को सुलझाया गया. इसके बाद पहली बार भारत ने भूटान में जाकर डोकलाम इलाके में चीनी सेना को सड़क बनाने से रोक दिया. चीन की इस सड़क से भारत की सिलीगुड़ी कॉरिडोर को खतरा हो सकता था. 73 दिनों तक चले गतिरोध के बाद आखिरकार चीन की सेना को पीछे हटना पड़ा और सड़क का काम रोक दिया गया।

भारत की इस रक्षा-नीति के पीछे जो बदलाव आया है उसके कई बड़े कारण हैं. पहला तो ये कि भारत जो कभी दुनिया में हथियारों का सबसे बड़ा आयातक देश था वो अब रक्षा-क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की दिशा में निकल चुका है. कारगिल युद्ध के दौरान भारत देख चुका था कि किस तरह बाहरी देश और विदेशी कंपनियों ने जरूरी गोला-बारूद की सप्लाई तक रोक दी थी. ऐसे में भारत ने न केवल सरकारी रक्षा उपक्रमों के जरिए टैंक, तोप, मिसाइल और गोला-बारूद का उत्पादन देश में ही तेजी से किया है बल्कि प्राइवेट कंपनियों को भी इसमें जोड़ा है. नतीजा ये हुआ है कि पिछले तीन-चार सालों में भारत ने 300 ऐसे हथियार और दूसरे सैन्य उपकरण की नेगेटिव-इंपोर्ट लिस्ट जारी की है. इस निगेटिव लिस्ट में शामिल हथियारों को अब विदेश से आयात नहीं किया जाएगा और स्वदेशी ही इस्तेमाल किए जाएंगे. इस लिस्ट में तोप तक शामिल हैं।

रक्षा मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत में रक्षा उत्पादन इस वक्त एक लाख करोड़ के पार पहुंच चुका है. भारत आज खुद के टैंक, तोप, मिसाइल व फाइटर जेट (एलसीए तेजस) बना रहा है. एयरक्राफ्ट कैरियर (आईएनएस विक्रांत) तक का निर्माण आज भारत खुद कर रहा है. ऐसे में युद्ध के समय दूसरे देशों को ताकने की जरूरत अब नहीं रहेगी. जो भारत हर छोटे से छोटे हथियारों का आयात करता था आज लड़ाकू विमानों के इंजनों को बनाने के लिए अमेरिका और फ्रांस की कंपनियों को मेक इन इंडिया के तहत स्वदेश में ही निर्माण करने के लिए तैयार कर सकता है।

मिलिट्री ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट (सी-295) का प्लांट भी बड़ोदरा में लगाया गया है ताकि मेक इन इंडिया के तहत ही निर्माण किया जाए. रूस भी एके-203 असॉल्ट राइफल का कारखाना उत्तर प्रदेश के कोरवा (अमेठी) में लगा रहा है.  रूस दुनिया के सबसे उन्नत किस्म की एस-400 मिसाइल प्रणाली भारत को देने के लिए तैयार है।

न केवल पारंपरिक युद्ध बल्कि भविष्य के युद्ध को ध्यान में रखते हुए भारत ने 2019 में स्पेस में एंटी-सैटेलाइट (ए-सैट) मिसाइल का सफल परीक्षण किया. इसके साथ ही भारत स्पेस-वॉर के लिए भी कमर कस चुका है. एंटी-सैटेलाइट मिसाइल बनाने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया है। स्वदेशी रक्षा उत्पादन का नतीजा ये हुआ है कि भारत आत्मनिर्भर बनने के साथ साथ मित्र-देशों की जरूरतों को भी पूरा करने के लिए तैयार है. भारत आज सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस तक का निर्यात कर रहा है. हाल ही में फिलीपींस ने ब्रह्मोस मिसाइल भारत से खरीदी है तो दूसरे देशों ने एलसीए तेजस और स्वदेशी हेलीकॉप्टर तक खरीदना चाहते हैं. ऐसे में भारत के रक्षा-निर्यात ने जबरदस्त उछाल मारा है. गत वर्ष भारत का रक्षा निर्यात 334 प्रतिशत तक बढ़कर 16 हजार करोड़ पहुंच गया है. मोदी सरकार ने इस रक्षा निर्यात को वर्ष 2026 तक 40 हजार करोड़ तक करने का लक्ष्य रखा है. इससे देश की अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी।

भारत की रक्षा नीति में एक बड़ा बदलाव तब देखने को मिला जब चीन से सटे बॉर्डर इलाकों में सड़क, टनल और पुल सहित दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर को अप्रत्याशित तरीके से मजबूत किया गया. दशकों से चली आ रही उस नीति को बदल दिया गया कि अगर बॉर्डर पर सड़क बनाई गई तो युद्ध की स्थिति में चीनी सेना भारत के भीतर तक पहुंच जाएगी. हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संसद में बताया कि वर्ष 2014 में जहां बॉर्डर इंफ्रास्ट्रक्चर का बजट 3200 करोड़ था आज उसे 14387 करोड़ कर दिया गया है. 2014 और 2022 के बीच 6800 किलोमीटर लंबी सड़कों का निर्माण सीमावर्ती इलाकों में किया गया. इसका नतीजा ये हुआ कि चीनी सेना की पैट्रोलिंग-पार्टी को घुसपैठ के वक्त तेजी से मूवमेंट कर रोक दिया गया।

वर्ष 2020 में अगर भारतीय सेना ने चीनी सेना को पूर्वी लद्दाख में घुसपैठ से रोका तो वो तेजी से किए गए डिप्लॉयमेंट की वजह से ही संभव हो पाया. सड़क मार्गों के साथ-साथ चीन से सटी एलएसी पर हवाई पट्टियों का निर्माण भी तेजी से किया जा रहा है ताकि दूर-दराज, दुर्गम और बेहद ऊंचाई वाले सीमावर्ती इलाकों में सैनिकों की जल्द रिइंफोर्समेंट की जा सके. आज सैनिक और हथियारों के साथ-साथ एलएसी पर भारत का चीन के मुकाबले ‘मिरर-इंफ्रास्ट्रक्चर’ है।

टू-फ्रंट वॉर यानि चीन-पाकिस्तान दोनों के खिलाफ एक साथ मोर्चा संभालने में भारत ने ‘मिलिट्री-डिप्लोमेसी’ का भी साथ लिया है. यही वजह है कि भारत की सशस्त्र सेनाएं (थलसेना, वायुसेना और नौसेना) आज अमेरिका, रूस, फ्रांस, इंग्लैंड, जापान, इजरायल, सऊदी अरब, यूएई, आस्ट्रेलिया और वियतनाम जैसे बड़े देशों के साथ मिलकर युद्धाभ्यास करती है. इससे भारत के सैनिकों को दूसरे देशों की युद्ध-कला तो सीखने को मिलती है और साथ ही रक्षा-संबंध भी मजबूत होते हैं. इसके अलावा भारतीय नौसेना मालाबार एक्सरसाइज में हिस्सा लेती है जिसमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान की नौसेना भी हिस्सा लेती हैं. ऐसे में जब भी भारत को जरूरत होती है मित्र-देश ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं।

गलवान घाटी की झड़प के बाद अमेरिका की सेना ने भारत को अपनी ‘विंटर-क्लोथिंग’ तक सप्लाई की थी. हालांकि, हरेक देश को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होती है फिर भी चीन से तनाव के वक्त अमेरिका ने अपने स्ट्रेटेजिक-बॉम्बर (विमान) हिंद महासागर में तैनात कर दिए थे. वहीं 62 के युद्ध के दौरान कोई भी देश भारत की मदद करना तो दूर समर्थन करने के लिए भी आगे नहीं आया था. इसका कारण ये था कि भारत उस वक्त गुरनिपेक्षता की नीति को फॉलो करता था।

भारत आज भी किसी ‘ब्लॉक’ का हिस्सा नहीं है. फिर भी अमेरिका और रूस जैसी महाशक्ति भारत की स्वत्रंत विदेश नीति का सम्मान करते हैं. यही वजह है कि यूक्रेन युद्ध के दौरान भारत ने न तो यूक्रेन का समर्थन किया और न ही रूस का विरोध. भारत ने साफ तौर से कहा कि आपसी विवादों का समाधान बातचीत और कूटनीति से निकाला जाना चाहिए, युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है।

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