तिब्बत क्रांति की 65वीं वर्षगांठ के मौके पर असम राइफल्स की 5वी बटालियन उस दिन को याद कर रही है जब धर्मगुरु दलाई लामा, ल्हासा से भागकर भारत में दाखिल हुए थे. 31 मार्च 1959 को तिब्बत के 14वें धर्मगुरु दलाई लामा (तेनजिन ग्यात्सो) चीन की दमनकारी और बर्बरतापूर्ण कार्रवाई से बचकर अरुणाचल प्रदेश में दाखिल हुए थे. असम राइफल्स (एआर) की 5वीं बटालियन ने दलाई लामा को मैकमोहन लाइन से सुरक्षित तेजपुर पहुंचाने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई थी. तभी से इस बटालियन को ‘द दलाई लामा’ बटालियन का नाम दिया जाता है.
10 मार्च 1959 को तिब्बत की राजधानी ल्हासा में चीन के खिलाफ क्रांति हुई थी. इस क्रांति को चीन ने बेहद ही बर्बरता से कुचल दिया था. ऐसे में चीन की दमनकारी कार्रवाई से बचने के लिए तिब्बत के सबसे बड़े धर्मगुरु ल्हासा से भागकर भारत आ गए थे. 17 मार्च को दलाई लामा ने अपने परिवार के साथ ल्हासा से अरुणाचल प्रदेश (उस वक्त नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी यानी नेफा) की यात्रा शुरु की थी. 26 मार्च को दलाई लामा अपने परिवार और सिक्योरिटी गार्ड के साथ मैकमोहन लाइन के करीब तिब्बत के लुहांत्से डोंग (दजोंग) पहुंच गए थे. जैसे ही ये खबर भारत पहुंची, दलाई लामा की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए 5एआर को तैनात किया गया.
उन दिनों तिब्बत से सटी नेफा बॉर्डर की सुरक्षा एआर के हवाले थी. 31 मार्च को अरुणाचल प्रदेश के केमांग डिवीजन की चुथांगमू बॉर्डर पोस्ट पर 5 एआर के जवानों ने दलाई लामा को रिसीव किया. भारत मे दाखिल होते ही दलाई लामा के सुरक्षाकर्मियों ने अपने हथियार असम राइफल्स के जवानों को सौंप दिए. भारत में दाखिल होते ही दलाई लामा की सुरक्षा की जिम्मेदारी 5 एआर के कंधों पर थी. दलाई लामा के सुरक्षाकर्मियों के वे हथियार आज भी असम राइफल्स के शिलॉन्ग (मेघालय की राजधानी) स्थित हेडक्वार्टर के म्यूजियम में रखे हुए हैं.
असम राइफल्स (एआर) से जुड़े एक सीनियर अधिकारी ने टीएफए को बताया कि “दलाई लामा का ल्हासा छोड़कर भारत में आना एक सामान्य घटना नहीं बल्कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार (सीसीपी) के खिलाफ विद्रोह जताना था. क्योंकि चीन की सीसीपी सरकार और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए-सेना), तिब्बत के सभी राजनीतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक नेताओं और गुरुओं को खत्म करने पर तुली थी.” दलाई लामा क्योंकि तिब्बत के सबसे बड़े ‘साइनशुर’ (यानि ध्रुवतारा) थे इसलिए वे चीन की सरकार के प्राइम टारगेट थे. यही वजह है कि दलाई लामा की सुरक्षा भारत के लिए सर्वोपरि थी.
चुथांगमू चौकी से 5 एआर के जवान दलाई लामा को तवांग लेकर आए और फिर वहां से 70 किलोमीटर पैदल यात्रा कर बोमडिला लेकर पहुंचे. कुछ रिपोर्ट्स की माने तो बोमडिला से दलाई लामा जीप के रास्ते असम के तेजपुर पहुंचे. इस दौरान दलाई लामा के भारत पहुंचने की खबर के बाद बड़ी संख्या में तिब्बती नागरिक भी तवांग पहुंचने लगे. रिकॉर्ड्स की माने तो करीब 12 हजार तिब्बती नागरिक जिन्हें ‘खम्पा’ के नाम से जाना जाता है शरणार्थी के तौर पर तवांग पहुंच गए. इन सभी की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी 5 एआर के हवाले थी.
असम राइफल्स के अधिकारी के मुताबिक, “50 के दशक में बेहद ही मुश्किल हालात, विपरीत मौसम और उंचे पर्वतीय (उबड-खाबड़) रास्तों के साथ-साथ चीनी सेना से बचते-बचाते 5 एआर ने दलाई लामा को सुरक्षित तेजपुर पहुंचाया था. 5 एआर की कर्तव्यनिष्ठा और सेवा के प्रति तत्परता को आज तक असम राइफल्स में याद किया जाता है.” यही वजह है कि 5 एआर को आज ‘द दलाई लामा ‘बटालियन के नाम से जाना जाता है.
पिछले 65 सालों से दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में रहते हैं. वहां से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलाई जाती है और चीन के खिलाफ विरोध जारी रखे हुए है. हर साल 5 एआर के जवान दलाई लामा से मुलाकात करने के लिए धर्मशाला जाते हैं. वर्ष 2017 में खुद दलाई लामा ने गुवाहाटी की यात्रा की थी और असम राइफल्स (5 एआर) के उन जवान से मुलाकात की थी जिन्होंने सुरक्षित भारत की सीमा में पहुंचाया था. वे जवान थे हवलदार नरेन चंद्र दास (रिटायर). दलाई लामा ने नरेन चंद्र को देखते हुए गले लगा लिया था.
दलाई लामा के भारत भागकर आने के महज तीन साल बाद यानी 1962 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश (और लद्दाख) पर आक्रमण कर दिया था. युद्ध खत्म होने के बाद ही अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख सहित पूरी 3488 किलोमीटर लंबी चीन सीमा (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल–एलएसी) के लिए अलग से एक सीमा सुरक्षा बल खड़ा किया गया. इसे नाम दिया गया ‘इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस’ यानी आईटीबीपी. आईटीबीपी की चीन सीमा पर तैनाती के बाद से असम राइफल्स को म्यांमार बॉर्डर और पूरे उत्तर-पूर्व क्षेत्र की आंतरिक सुरक्षा में तैनात कर दिया गया.
(तिब्बती विद्रोह की वर्षगांठ पर चीन का विरोध)
(https://www.youtube.com/live/L_2JSvpYanI?si=TEUJEGMNGhc-SG-1)
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