इंफेन्ट्री से पैरा-एसएफ में, साउथ ब्लॉक के दफ्तर में ना बैठकर दुश्मन को मार गिराने के लिए एलओसी भाग जाना, बिना ‘एक्लेटेमाइजेशन’ के करगिल (कारगिल) की पहाड़ियों पर चढ़ जाना और मेजर रैंक के दौरान ही ‘कर्नल’ का खिताब पाना. ऐसा ही कुछ व्यक्तित्व है भारतीय सेना के ‘रैम्बो’ का. इस रैम्बो की कहानी को पुस्तक के तौर पर उतारा है भारतीय सेना के रिटायर्ड कर्नल आशुतोष काले ने.
मार्केट में आते ही कर्नल काले की पुस्तक ‘हॉट न्यू रिलीज’ में शामिल हो गई है. आखिर ये ‘रैम्बो’ कौन है. इसका खुलासा खुद कर्नल ने टीएफए से खास बातचीत में किया है. कर्नल काले के मुताबिक, उनकी पुस्तक का ‘रैम्बो’ हॉलीवुड फिल्म का कोई काल्पनिक कैरेक्टर नहीं है बल्कि एक इंसान है जिसने 24 साल पहले देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया था. उसने महज 10 साल की कम सेवा के दौरान ही भारतीय सेना में एक से बढ़कर ऐसे वीरता और रोमांच के कारनामे किए कि उसे ‘रैम्बो’ का टाइटल दे दिया गया. कारगिल युद्ध उसके द्वारा अंजाम दिए गए ऑपरेशन के बाद ही समाप्त हुआ था. कश्मीर में अफगानिस्तान से आए खूंखार आतंकियों के खिलाफ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होने के कारण उसे मरणोपरांत देश के सबसे बड़ा वीरता मेडल ‘अशोक चक्र’ से नवाजा गया था.
मेजर सुधीर कुमार वालिया हैं कर्नल काले की पुस्तक के रैम्बो. 1988 में भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट में शामिल होने वाले मेजर वालिया तुरंत ही श्रीलंका जाने वाली आईपीकेएफ यानी इंडिया श्रीलंका पीस कीपिंग फोर्स का हिस्सा बने. लेकिन वहां से लौटते ही उन्होंने पैरा-एसएफ रेजिमेंट में शामिल होने का आवेदन दिया और फिर वे एलीट ‘9 पैरा’ का हिस्सा बन गए. पैरा-एसएफ में सेवाओं के दौरान मेजर (उस वक्त कैप्टन) कश्मीर में तैनात रहे और आतंकियों के खिलाफ ऑपरेशन के लिए सेना मेडल (वीरता) से नवाजा गया. 1999 में करगिल युद्ध के वक्त वे तत्कालीन थलसेना प्रमुख वेद प्रकाश मलिक (1997-2000) के एडीसी के तौर पर राजधानी दिल्ली स्थित साउथ ब्लॉक में तैनात थे.
कर्नल काले बताते हैं कि “चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (थलसेना प्रमुख) का एडीसी (एड डी कैंप) होने के नाते मेजर वालिया को करगिल युद्ध से जुड़ी सभी जानकारियां मिल रही थीं. ऐसे में साउथ ब्लॉक के एसी कमरे में बैठकर उनका खून खौलने लगा. वे करगिल में जाकर पाकिस्तानी सैनिक और घुसपैठियों को बाहर निकालकर फेंकना चाहते थे.” ऐसे में मेजर वालिया ने थलसेना प्रमुख जनरल मलिक से जंग के मैदान में जाने की गुजारिश की. खुद जनरल मलिक हैरान थे कि ऐसे समय में जब भारतीय सेना के युवा अधिकारी और सैनिक दुश्मन को अपनी सरजमी से निकालने के लिए सर्वोच्च बलिदान दे रहे थे, मेजर वालिया खुद अपनी जान जोखिम में डालने के लिए तैयार थे.
मेजर वालिया को करगिल जाने का मौका मिला तो वे बिना एक्लेमेटाइज के करगिल की ऊंची पहाड़ियों पर लड़ने के लिए पहुंच गए. टाइगर हिल फतह करने के बाद मश्कोह वैली सेक्टर की जूलु टॉप (5200 मीटर) पर कब्जा करना बेहद जरूरी था. मेजर वालिया और उनके साथियों ने ये कारनामा कर दिखाया. कर्नल वालिया बताते हैं कि ‘रॉक क्लाइम्बिंग’ के जरिए मेजर वालिया और उनके साथी जूलु टॉप पहुंचे और दुश्मन को वहां से खदेड़ कर ही दम लिया.
जूलु टॉप पर फतह करने के साथ ही भारत ने करगिल युद्ध में पूरी तरह विजय की घोषणा की दी और इस तरह मेजर वालिया के ऑपरेशन से जंग समाप्त हो गई. युद्ध खत्म होने के बाद जब मेजर वालिया से पूछा गया कि वे बिना ‘एक्लेमेटाइज’ यानी करगिल जैसे ठंडे रेगिस्तान और बेहद ऊंचाई वाले जलवायु के प्रति अपने को ढालने के लिए जरूरी एक हफ्ते की अभ्यासता से क्यों नहीं गुजरे तो मेजर वालिया ने जवाब दिया कि ‘पहाड़ी के बच्चे’ को इसके जरुरत नहीं पड़ती है. दरअसल, मेजर वालिया मूल रूप से हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के रहने वाले थे. ऐसे में पहाड़ों पर तैनाती के लिए उन्हें एक्लाइमेटाइज करने की कोई खास जरूरत नहीं पड़ती थी.
करगिल युद्ध खत्म होने के बाद मेजर वालिया तुरंत कश्मीर में तैनाती के लिए चले गए, जहां पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले घुसपैठियों ने घाटी में आतंकवाद को बढ़ाना शुरु कर दिया था. कश्मीर में तैनाती के दौरान मेजर वालिया के रणकौशल, चपलता और बुद्धिमत्ता के चलते सेना में सभी उन्हें ‘कर्नल’ के नाम से पुकारने लगे. हालांकि, उस वक्त वे मेजर रैंक के अधिकारी थे.
अगस्त 1999 में कुपवाड़ा के हफरूदा जंगलों में जब करीब 20 अफगानी आतंकियों ने घुसपैठ की कोशिश की तो मेजर वालिया अपने साथियों के साथ उन्हें रोकने के लिए वहां पहुंच गए. सेना के रिकॉर्ड की मानें तो मेजर वालिया और उनके साथियों ने 09 आतंकियों को ढेर कर दिया था. लेकिन गन-फाइट के दौरान मेजर वालिया को कई गोलियां लग गई थीं. बावजूद इसके वे लड़ते रहे और अपने साथियों को आतंकियों के खिलाफ लड़ने का दिशा-निर्देश देते रहे. ऑपरेशन खत्म होने के बाद ही वे वहां से अस्पताल जाने के लिए तैयार हुए. हेलीकॉप्टर के जरिए मेजर वालिया को श्रीनगर स्थित बेस हॉस्पिटल ले जाया गया लेकिन रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया. उनकी बहादुरी, अदम्य साहस और कर्तव्यनिष्ठा के लिए सरकार ने मेजर वालिया को मरणोपरांत अशोक चक्र से नवाजा.
मेजर वालिया को अपनी पुस्तक में ‘रैम्बो’ नाम क्यों दिया है, इस पर कर्नल काले बेहद ही सटीक जवाब देते हैं. कर्नल काले के मुताबिक, “जिसमें परशुराम जैसा क्रोध हो, अभिमन्यु की तरह साहस भरा हो, अर्जुन जैस दृढ़ता हो और श्रीराम की तरह समझ हो, वही रैम्बो कहलाता है.” कर्नल काले मानते हैं कि ये सभी गुण मेजर वालिया में कूट-कूट कर भरे थे. करगिल युद्ध के रजत जयंती वर्ष (25 वर्ष) होने के उपलक्ष्य में ये ‘रैम्बो’ पुस्तक लिखकर कर्नल काले ने मेजर वालिया को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी. 17 मई यानी शुक्रवार को खुद पूर्व थलसेना प्रमुख जनरल मलिक (रिटायर) राजधानी दिल्ली में ‘सृष्टि पब्लिशर्स’ द्वारा प्रकाशित पुस्तक को आधिकारिक तौर से रिलीज करेंगे.
[Watch full conversation with author Colonel Ashutosh Kale (Retd) on the book ‘Rambo’ on ‘Final Assault By Neeraj Rajput’: https://youtu.be/MJD31NNBgg4?si=qVxnHDVfRockGKyn]