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श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव, चीन का जाल या भारत का साथ [OpEd]

पड़ोसी देश श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए अब एक हफ्ते से भी कम का समय बचा है. कौन बनेगा श्रीलंका का नया राष्ट्रपति जो देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने के साथ चीन के सामरिक प्रभाव से भी बाहर निकाल सकेगा. यही दो मुद्दे (वैसे दोनों मुद्दे जुड़े हैं) श्रीलंका के चुनावों में छाए हुए हैं, जहां महज दो साल पहले महंगाई की मार झेल रही जनता ने राष्ट्रपति के पैलेस पर कब्जा कर लिया था. राष्ट्रपति को देश छोड़कर समंदर में शरण लेनी पड़ी थी. ऐसे में भारत ने एक सच्चे पड़ोसी की तरह श्रीलंका को मझधार से बाहर निकालने में बड़ी मदद की थी.  

श्रीलंका में नए राष्ट्रपति के लिए 21 सितंबर को वोट पड़ने हैं जिसमें 1.70 करोड़ वोटर अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे. राष्ट्रपति चुनाव में हालांकि, कुल 39 उम्मीदवार मैदान में हैं लेकिन मुख्य मुकाबला चतुर कोणीय है. इस मुकाबले में सबसे पहला नाम आता है मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे का, जिन्होंने 2022 के अरागालय यानी लोगों के विद्रोह के बाद गोताबाया राजपक्षे की जगह देश की कमान संभाली थी. आम जनता का गुस्सा तभी शांत हुआ था जब राजपक्षे ने विक्रमसिंघे को अपनी जगह राष्ट्रपति बनाया था.

पिछले दो सालों में विक्रमसिंघे ने श्रीलंका को आर्थिक तंगी से निकालने का प्रयास जरुर किया है लेकिन अभी भी मिडिल क्लास और निचला तबका गरीबी और तंगहाली जीने को मजबूर है. विक्रमसिंघे ने आईएमएफ और भारत की मदद से विदेशी मुद्रा भंडार को व्यवस्थित करने की कोशिश की है. इसका नतीजा ये हुआ कि श्रीलंका विदेश से खाने-पीने की जरूरी सामान को खरीद पाया.

विक्रमसिंघे ने चीन के प्रभाव को कम करने और भारत से नजदीकियां बढ़ाने के लिए पूरे एक साल के लिए चीनी युद्धपोत और पनडुब्बियों को आइलैंड-नेशन में आने पर रोक लगा दी थी. श्रीलंका में प्रतिबंध के बाद ही चीन ने हिंद महासागर के दूसरे पड़ोसी देश मालदीव का रुख किया था. चीन के स्पाई-शिप के श्रीलंका के किसी बंदरगाह पर आने से रोकने के पीछे भारत की ही कूटनीति बताई गई थी.

विक्रमसिंघे के खिलाफ हालांकि चुनाव में उनके राजपक्षे की लीगेसी को ही आगे बढ़ाना एक बड़ा फैक्टर हो सकता है. साथ ही अरागलय के बाद से श्रीलंका की जनता, राजनीतिक-परिवारवाद को बढ़ावा देने के पक्ष में कम दिखाई पड़ रही है. निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ रहे विक्रमासिंघे के लिए रुस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की तरह चुनाव जीतना कोई केक-वॉक नहीं होने जा रहा है.

हाल ही में श्रीलंका में हुए सर्वे में जनता ने 43 प्रतिशत तक समर्थन साजिथ प्रेमदासा को मिला था, जो फिलहाल विपक्ष के नेता हैं. पूर्व राष्ट्रपति राणासिंघे प्रेमदासा के बेटे सजीथ एक उच्च परिवार से ताल्लुक जरूर रखते हैं लेकिन वे आर्थिक सुधारों का बोझ कामगार वर्ग पर डालने के पक्षधर नहीं हैं. सामागी जन वलवेगाया (एसजेबी) पार्टी के सजीथ ने चुनाव जीतने के बाद देश में राष्ट्रपति प्रणाली खत्म कर (भारत की तरह) संसदीय प्रणाली लाने का वादा किया है. एजीबी, यूनाइटेड नेशनल पार्टी का ही टूटा हुआ हिस्सा है.

चुनाव में तीसरे मजबूत उम्मीदवार के तौर पर उभरे हैं जनथा विमुखथी पेरामुना (जेवीपी) पार्टी के अनुरा कुमारा दिसानायका. वामपंथी विचारधारा वाली इस पार्टी को चीन का हिमायती माना जाता है. सजीथ प्रेमदासा को अगर कोई सही मायने में टक्कर दे रहा है तो वो अनुरा ही हैं. राजनीतिक पृष्ठभूमि और संपन्न परिवार से आने के चलते सजीथ, चुनावी अभियान में अनुरा का निशाना बन रहे हैं.

सजीथ की तरह ही हालांकि, अनुरा भी देश में राष्ट्रपति प्रणाली खत्म करने के पक्षधर हैं और संसदीय प्रणाली पर जोर दे रहे हैं. खास बात ये है कि अनुरा की जेवीपी पार्टी 70-80 के दशक में हिंसात्मक विद्रोह में विश्वास रखती थी. लेकिन अब हिंसा का रास्ता त्याग कर लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता पर काबिज होना चाहती है. इसके लिए जेवीपी ने दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ मिलकर गठबंधन भी तैयार किया है.

राष्ट्रपति पद के लिए इन तीन उम्मीदवारों के साथ पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के बेटे नमल राजपक्षे भी चुनाव मैदान में हैं. श्रीलंका पौदजना पेरामुना (एसएलपीपी) से ताल्लुख रखने वाले नमल अपनी राजनीतिक विरासत को भुनाने का प्रयास कर रहे हैं.

घरेलू मुद्दों के साथ श्रीलंका की जियो-स्ट्रेटेजिक लोकेशन भी चुनाव को प्रभावित करती रही है. भारत को घेरने और हिंद महासागर में अपना दबदबा कायम करने में जुटा चीन, श्रीलंका के जरिए अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) पूरा करने में जुटा था. इसके लिए चीन ने पहले श्रीलंका को कर्ज तले दबाया और फिर हम्बनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर लिया और कोलंबो पोर्ट सिटी बनाने का ख्वाब दिखाया.

आंकड़ों की मानें तो 2000-2020 के बीच चीन ने श्रीलंका को करीब 12 बिलियन डॉलर का लोन दिया था. श्रीलंका के कुल 46.9 बिलियन डॉलर के विदेशी कर्ज में आधे से ज्यादा चीन का है. कोरोना महामारी के चलते जब श्रीलंका में पर्यटकों की संख्या गिर गई और विदेशी कर्ज चुकाने में डिफॉल्ट घोषित हो गया, तब भारत ने ही 3.8 बिलियन डॉलर की मल्टीपल क्रेडिट लाइन दी थी ताकि आईएमएफ से 48 महीने के लिए बेल-आउट मिल सके.

महिंदा राजपक्षे के कार्यकाल (2005-15) के दौरान श्रीलंका पूरी तरह से चीन के खेमे में चला गया था. लेकिन उसके बाद से भारत से संबंध काफी सुधर गए हैं. भारत के श्रीलंका से पौराणिक (रामायण) काल से लेकर सम्राट अशोक (बौद्ध काल) और 80 के दशक में उग्रवादी संगठन एलटीटीई के खात्मे के लिए बनाई गई इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आईपीकेएफ) के समय तक प्रगाढ़ संबंध रहे हैं.

भारत की नेबरहुड फर्स्ट नीति में श्रीलंका एक अहम स्थान रखता है. यही वजह है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में पहली यात्रा कोलंबो की थी. कचाथिवू आइलैंड और मछुआरों को लेकर जरूर दोनों देशों के बीच तनातनी रही है लेकिन आईएनएस शल्की पनडुब्बी को कोलंबो पोर्ट पर मिले स्वागत ने साफ कर दिया है कि दोनों देशों की नौसेनाएं रक्षा सहयोग के लिए तैयार हैं.

हाल ही में अडानी ग्रुप ने कोलंबो बंदरगाह के कंटेनर टर्मिनल में भारी निवेश किया है ताकि दोनों देशों के लॉजिस्टिक को इंटीग्रेट किया जा सके. दोनों देशों ने एक बार फिर से पर्यटन के जरिए कनेक्ट बढ़ाने पर जोर दिया है. भारत ने अगर बुद्ध-सर्किट के जरिए श्रीलंका के लोगों को आकर्षित करने पर जोर दिया है तो श्रीलंका भी रामायण-ट्रेल के जरिए ज्यादा से ज्यादा भारतीय पर्यटकों को लुभाने का प्रयास कर रहा है. दोनों देशों ने डिजिटल पेमेंट में भी इंटीग्रेशन किया है.

यही वजह है कि मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे चुनावी अभियान में स्ट्रेटेजिक ऑटोनोमी के जरिए भारत और चीन, दोनों से संबंध बनाकर रखने पर जोर दे रहे हैं. सजीथ प्रेमदासा ने तो भारत के साथ संबंधों को एक मात्र महत्वपूर्ण रिलेशनशिप करार दिया है. हालांकि, नमल राजपक्षे को चुनावी मैदान में सबसे कमजोर कड़ी माना जा रहा है लेकिन उन्होंने भी संकट के समय भारत द्वारा दी गई मदद की सराहना की है.

सबसे बड़ा खेल हालांकि, चीन के करीबी माने जाने वाले अनुरा (एकेडी) ने दिया है. इसी साल फरवरी के महीने में एकेडी ने राजधानी दिल्ली का दौरा कर जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल से मुलाकात की थी.

साफ है कि भले ही श्रीलंका में राष्ट्रपति कोई भी बन जाए लेकिन भारत से संबंधों को नकारने की गलती शायद ही कर पाए.

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