Military History War

हल्दीघाटी की लड़ाई कौन जीता, अकबर या महाराणा प्रताप ? (TFA Special)

विश्व-प्रसिद्ध हल्दीघाटी की लड़ाई के बारे में हम सब जानते हैं कि किस तरह मेवाड़ नरेश महाराणा प्रताप ने मुगल साम्राज्य की सेना के दांत खट्टे किए थे. भले ही युद्ध के बाद महाराणा प्रताप को चित्तौड़गढ़ किले को छोड़कर जंगलों की खाक छाननी पड़ी थी लेकिन मुगल बादशाह को भी मेवाड़ के खिलाफ कभी निर्णायक जीत हासिल नहीं हुई थी. क्या आप जानते हैं जब महाराणा प्रताप और मुगल सेनापति मानसिंह की सेनाएं आमने सामने आ गई तो अकबर की सेना की तरफ से लड़ रहे मुस्लिम सैनिकों ने उन दोनों के सैनिकों पर अंधाधुंध तीरों की बौछार शुरु कर दी. क्योंकि जिस तरफ से भी सैनिक मरते, “एक हिंदू कम हो रहा था.”

देश ही नहीं दुनियाभर में अपनी वीरता, साहस, त्याग और आत्म-सम्मान का प्रतीक माने जाने वाले मेवाड़ के शूरवीर महाराणा प्रताप की आज (9 मई 2024) 484 वीं जयंती है. ऐसे में हल्दीघाटी के युद्ध के कुछ अनछुए पहलुओं को बताने का समय है जो आज से पहले शायद ही कभी सामने आए हैं.

हल्दीघाटी का युद्ध वर्ष 1576 में लड़ा गया था. अलग-अलग इतिहासकारों और पुस्तकों में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना की ताकत के बारे में अलग-अलग जानकारी दी गई है. लेकिन भारत की मिलिट्री हिस्ट्री के विद्वानविद जदुनाथ सरकार के मुताबिक, महाराणा प्रताप की सेना में करीब तीन हजार घुड़सवार थे. हालांकि, पैदल-सैनिकों के बारे में सही सही जानकारी जदुनाथ सरकार ने भी नहीं दी है. अकबर की सेना का नेतृत्व कर रहे थे आमेर या आंबेर (आज के जयपुर) के राजा मान सिंह, जो कछवाहा (राजपूत) कुल के थे. मुगल सेना में कुल 10 हजार सैनिक थे. इनमें से चार हजार मान सिंह की सेना के राजपूत सैनिक थे. एक हजार दूसरे राजपूत राजाओं के सैनिक थे जो अकबर की तरफ से लड़ रहे थे. करीब पांच हजार मुगल (मुस्लिम) सैनिक थे. 

युद्ध के दौरान दोनों तरफ से हाथियों का इस्तेमाल भी किया गया था. मुगल सेना में कुछ ‘मस्कट’ (बंदूकों) के इस्तेमाल करने का भी जिक्र आता है. लेकिन महाराणा प्रताप की सेना में कोई बंदूकधारी नहीं था. ऐसे में मान सकते हैं कि मेवाड़ की सेना मुगलों की सेना की एक-तिहाई थी. 

मुगल सेना में राजा मान सिंह के अलावा कुछ दूसरे राजपूत राजा और अकबर के अफगान, उजबेक, कजाख और दूसरे मुस्लिम मनसबदार शामिल थे. इसके अलावा फतेहपुर-सीकरी के पीर शेख सलीम चिश्ती के शेखजादे भी मुगल सेना का हिस्सा थे. महाराणा प्रताप की सेना में अफगान सेनापति हाकिम खान सूर और कुछ राजपूत रियासतों के राजा शामिल थे. साथ ही ऐसे राजा भी थे जिन्हें अकबर ने उनके राज्य से बेदखल कर दिया था. इनमें ग्वालियर के राजा राम सह तंवर और उनके तीन बहादुर पुत्र शामिल थे. साथ ही महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह और भील जाति के धनुर्धर थे. भील धनुर्धर मेवाड़ की इंफेंट्री यानी पैदल-सैनिक की तरह थे और घुड़सवारों के पीछे तैनात किया गया था. झाला के बिदा माना भी मेवाड़ की तरफ से लड़ रहे थे.  

मेवाड़ के चित्तौड़गढ़ के करीब हल्दीघाटी में जंग का मैदान था. 18 जून 1576 की सुबह महाराणा प्रताप ने गुरिल्ला (गोरिल्ला) युद्ध-शैली में मुगल सेना पर अचानक पहाड़ों के पीछे से आकर बेहद तेजी से आक्रमण कर दिया. ये एक ‘जंगली-सुअर की तरह छापेमार आक्रमण’ था. यानी महाराणा प्रताप ने एक रात पहले से ही मुगल सेना पर आक्रमण करने की तैयारी कर ली थी. इसके बाद दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ. युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप को ग्वालियर के तीनों राजकुमार एस्कॉर्ट कर रहे थे ताकि कोई भी मुगल सैनिक उनके आसपास ना फटक सके. 

जैसे ही दोनों सेनाओं के राजपूत सैनिक आमने-सामने आए, उन्होंने एक दूसरे को गाली देना शुरु कर दिया. मेवाड़ के राजपूत सैनिक इसलिए कि मान सिंह और दूसरे राजपूत राजा मुगलों की तरफ से लड़ रहे थे. खास तौर से अंबेर के कछवाहा राजपूत और मेवाड़ (महाराणा प्रताप) के सिसोदिया राजपूत एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहा रहे थे और गालियों और तंज के साथ हमला कर रहे थे. उनकी बीच इतनी खटास थी कि तलवारों और भालों के साथ-साथ गुत्थम-गुथा भी लड़ रहे थे. 

युद्ध में मुगल सेना की तरफ से एक दर्शक की तरह गए मध्यकालीन इतिहासकार और लेखक अल-बदायूंनी के मुताबिक, जब दोनों तरफ के राजपूत सैनिक एक दूसरे से लड़ रहे थे तब मुगल घुड़सवारों ने उन्हें घेर कर तीरों की बौछार कर दी. खुद मुगल सेना के एक जनरल अली आसफ खान ने अल-बदायुनी को कहा था कि “दोनों तरफ से कोई भी जंग के मैदान में गिरेगा, एक हिंदू ही कम होगा और इस्लाम को फायदा होगा.” 

महाराणा प्रताप की सेना के राजपूत राजा बार-बार मान सिंह के करीब पहुंचने की कोशिश करते और उसे सीधे लड़ने के लिए ललकारते. मान सिंह क्योंकि हाथी पर सवार था इसलिए उस तक पहुंचना मुश्किल हो रहा था. माना जाता है कि इस दौरान महाराणा प्रताप ने अपने चेतक घोड़े से मान सिंह के हाथी पर जबरदस्त वार किया. उसी दौरान चेतक की एक टांग में गंभीर चोट लगी. बावजूद इसके चेतक और महाराणा प्रताप रणभूमि में डटे रहे. 

मेवाड़ के घुड़सवार जब मुगलों की सेना के सामने कम पड़ने लगे तो महाराणा प्रताप ने हाथियों को रणभूमि में उतार दिया. मेवाड़ सेना के खास ‘राम-प्रसाद’ और ‘लोना’ नाम के हाथियों ने मुगल सेना में घुसकर तबाही मचा दी. ऐसे में मुगल सेना ने अपने ‘गजराज’ और ‘राम-मदर’ नाम के दो हाथियों को राम-प्रसाद के खिलाफ उतारा. इसी दौरान राम प्रसाद के महावत के एक तीर आकर लगा और वो नीचे गिर गया. इसका फायदा उठाकर मुगल फौजदार हुसैन खान राम-प्रसाद पर सवार हो गया. युद्ध के बाद राम-प्रसाद को ‘वार-ट्रॉफी’ के तौर पर मुगल-दरबार में अकबर के सामने पेश किया गया था.

तीन घंटे तक युद्ध चलने के बाद जब मुगल सेना ने महाराणा प्रताप को घेरने की कोशिश की तो झाला के राजा बिदा माना ने जबरदस्त चाल चली. बिदा ने महाराणा प्रताप के सर पर लगे शाही छाते को अपने सर पर लगा लिया ताकि मुगल उनसे लड़ने के लिए आए और महाराणा प्रताप युद्ध-भूमि से बचकर निकल जाएं. ऐसा ही हुआ और महाराणा प्रताप घायल चेतक के साथ मुगलों की सेना को चकमा देने में कामयाब रहे. हल्दीघाटी से कुछ दूरी पर जाकर हालांकि चेतक गिर गया और वीरगति को प्राप्त हो गया. लेकिन अपने मालिक को उसने आंच तक नहीं आने दी. यही वजह है कि हल्दीघाटी के करीब आज भी चेतक की याद में मेमोरियल बनाया हुआ है. ये वही जगह है जहां चेतक ने रणभूमि से निकल कर आखिरी सांस ली थी. 

महाराणा प्रताप के युद्ध-भूमि छोड़ने के बाद मेवाड़ के करीब 350 सैनिक मुगल सेना का सामना करते हुए  वीरगति को प्राप्त हुए. कहते हैं कि इन सैनिकों का अंतिम-संस्कार हल्दीघाटी के करीब बने एक कुंड में रक्त साफ करने के बाद किया गया था. आज भी ये सूखा हुआ कुंड रक्त-ताल के नाम से जाना जाता है. हल्दीघाटी में सैनिकों का इतना खून बहा कि कहते हैं कि आज भी आसपास के पहाड़ों की हल्दी (पीले) रंग की पहाड़ियों को खोदा जाए तो अंदर से लाल मिट्टी निकलती है. इसी ‘लाल मिट्टी से कभी मेवाड़ की राजपूत स्त्रियां अपने मांग भरती थीं’. 

बदायूंनी के मुताबिक, युद्ध के दौरान दोनों सेना के सुप्रीम कमांडर यानी महाराणा प्रताप और मानसिंह केवल एक बार जरूर करीब आए लेकिन इतना नहीं कि एक दूसरे के भालों की जद में आ सके. हल्दीघाटी की रणभूमि में मुगल सेना को बढ़त जरुर मिली लेकिन अकबर को कभी भी सामरिक जीत हासिल नहीं हो सकी. अकबर ने चित्तौड़गढ़ और पूर्वी मेवाड़ पर जरुर कब्जा कर लिया था लेकिन मुगल सेना उत्तर-पश्चिम पहाड़ों और जंगलों में छिपे महाराणा प्रताप को नहीं ढूंढ पाई. नतीजा ये हुआ कि जब भी मुगल सेना गुजरात जाने के लिए वहां से निकलती, महाराणा प्रताप की सेना गोरिल्ला शैली में उसपर हमला बोल देती. महाराणा प्रताप की तलाश में खुद अकबर ने अजमेर में आकर डेरा डाला लेकिन निराशा ही हाथ लगी.  

थक हारकर जब मुगल सेना मेवाड़ से लौट गई तो महाराणा प्रताप जंगल और पहाड़ों से बाहर निकल आए. क्योंकि मुगल साम्राज्य के बंगाल और बिहार में विद्रोह हो गया था. पंजाब को हाथ से निकलता देख 1585 में खुद अकबर 12 सालों के लिए लाहौर चला गया था. 

हल्दीघाटी की लड़ाई के बाद महाराणा प्रताप अकेले जरुर पड़े लेकिन उन्होंने अपनी सेना और राज्य को फिर से खड़ा किया. महाराणा प्रताप ने गोगुंदा और कुंभलगढ़ किले पर फिर से कब्जा कर लिया. साथ ही डूंगरपुर के करीब चावंड में मेवाड़ की नई राजधानी भी बनाई. हालांकि चित्तौड़ किले को महाराणा प्रताप के काल में वापस नहीं मिला लेकिन आसपास के सभी इलाकों पर मेवाड़ का शासन चलता था. 1597 में शिकार खेलने के दौरान लगी एक चोट के कारण महाराणा प्रताप का देहांत हो गया था. उस वक्त उनकी आयु 57 वर्ष थी. आठ साल बाद यानी 1605 में अकबर की भी मौत हो गई. अकबर की मृत्यु के बाद उसके बेटे जहांगीर ने महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से संधि कर ली और पूरा मेवाड़ वापस कर दिया गया.