आज अगर जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो वो 1948 के युद्ध में पाकिस्तान के खिलाफ मिली अहम सफलता और फील्ड मार्शल के एम करिअप्पा की रणनीति की देन है. संयुक्त राष्ट्र के दबाव में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने युद्ध-विराम का ऐलान किया तो जनरल करिअप्पा बेहद नाराज हुए. जम्मू-कश्मीर में मिली सफलता के बाद जनरल करिअप्पा का अगला कदम पीओके यानी आज के पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की राजधानी मुजफ्फराबाद पर कब्जा करना था. करिअप्पा का बेटल-प्लान पूरे कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान को भारत में मिलाना था जिसके लिए उन्हें महज 10 दिन का वक्त और चाहिए था.
पाकिस्तान के खिलाफ 1971 युद्ध के हीरो फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की कहानी (‘सैम बहादुर’ फिल्म) तो सभी ने हाल ही में थियेटर पर देखी है. लेकिन सैम बहादुर अकेले भारत के फील्ड मार्शल नहीं हैं. आजादी के बाद भारत के पहले कमांडिंग इन चीफ यानी थलसेना प्रमुख जनरल के सी करिअप्पा को भी फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई है. 15 जनवरी 1949 को जनरल करियप्पा ने भारतीय सेना की कमान संभाली थी. यही वजह है कि हर साल 15 जनवरी को भारतीय सेना का स्थापना दिवस, ‘आर्मी डे’ मनाया जाता है. इस साल आर्मी डे उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मनाया जा रहा है. लेकिन देश के पहले थलसेना प्रमुख होने के नाते ही जनरल करियप्पा को फील्ड मार्शल की रैंक से नहीं नवाजा गया था. इसके कई बड़े कारण हैं.
1947 में आजादी के तुरंत बाद भारतीय सेना के पहले प्रमुख यानी चीफ एक अंग्रेज अफसर जनरल रॉय बुचर को बनाया गया था. बूचर के बाद सबसे सीनियर इंडियन कमांडर होने के नाते जनरल करिअप्पा को थलसेना प्रमुख बनाया गया था. लेकिन देश के पहले थलसेना प्रमुख होने के नाते ही करिअप्पा को 1986 में फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी. जैसा सभी जानते हैं कि थलसेना प्रमुख फॉर स्टार जनरल होते हैं. थलसेना प्रमुख रिटायरमेंट के बाद आर्मी यूनिफॉर्म नहीं पहन सकते हैं. लेकिन फील्ड मार्शल आजीवन यूनिफॉर्म पहनता है और उसकी वर्दी पर लगे होते हैं पांच स्टार.
फील्ड मार्शल करियप्पा का जन्म कर्नाटक के कुर्ग जिले की कोडावा वॉरियर क्लास में हुआ था. कुर्गी कम्युनिटी जिसकी पारंपरिक वेशभूषा में पुरुषों के एक हाथ में होता है बड़ा सा खंजर और दूसरे हाथ में एक गन. करिअप्पा भारतीय मूल के पहले ब्रिगेडियर थे. ब्रिटिश इंडियन आर्मी के वे पहले भारतीय ऑफिसर थे जिन्होनें उस वक्त के क्वेटा स्थित स्टाफ कॉलेज में मिलिट्री-शिक्षा ली थी. राजपूत रेजीमेंट से ताल्लुक रखने वाले करियप्पा आजादी के समय मेजर-जनरल रैंक के ऑफिसर थे. आजादी के फौरन बाद भारत को कश्मीर की आजादी के लिए जंग में कूदना पड़ा. करियप्पा भले ही मेजर जनरल रैंक के सबसे बड़े अधिकारी थे, लेकिन अंग्रेजों की फौज में उन्हें कभी कॉम्बेट रोल यानी युद्ध में सीधे लड़ने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ था. वे अधिकतर सेना की सप्लाई और रि-ऑर्गेनाइजेशन से जुड़े थे. इसको लेकर हालांकि उन्होंने अंग्रेजों से विरोध भी जताया था. बावजूद इसके पाकिस्तान के खिलाफ जंग में उन्होंने अपनी मिलिट्री लीडरशिप की मिसाल कायम की.
1947-48 के युद्ध के दौरान जनरल करिअप्पा को दिल्ली स्थित वेस्टर्न थियेटर कमांड का कमांडर बनाया गया था. उन दिनों उधमपुर स्थित उत्तरी कमान नहीं बनी थी और चंडीमंदिर स्थित पश्चिमी कमान का मुख्यालय दिल्ली हुआ करता था. इसी पश्चिमी कमान के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर में जंग लड़ी गई थी. इसके लिए भारतीय सेना ने ऑपरेशन किप्पर, इजी और बाइसन छेड़े थे. दरअसल, करियप्पा को किप्पर के नाम से भी जाना जाता था.
संयुक्त राष्ट्र के दबाव में पाकिस्तान से युद्ध-विराम के बाद जनरल करिअप्पा ने नेहरू से इस बारे में खुद बात की थी. इस बातचीत का जिक्र खुद उनके बेटे ने अपने पिता की बायोग्राफी में दिया है. उनके पायलट बेटे एयर मार्शल के सी करिअप्पा ने अपने बहादुर पिता की जीवन पर एक पुस्तक लिखी थी. फील्ड मार्शल अपने बेटे को नंदा कहकर पुकारते थे. नंदा के मुताबिक, नेहरू को बाद में अपनी गलती का एहसास हुआ था और उन्होंने फील्ड मार्शल से कहा भी था कि हमें आपको लड़ने के लिए 10-15 दिन और दिए होते तो परिस्थितियों कुछ और होती. यानी नेहरू भी मान गए थे कि अगर युद्ध 10-15 दिन और खींचता तो आज पूरा जम्मू-कश्मीर और पीओेके भी भारत का अहम हिस्सा होता. साफ था कि जनरल करियप्पा को मुजफ्फराबाद और मीरपुर में ऑफेंसिव ऑपरेशन करने नहीं दिया गया था.
कई बार जनरल करिअप्पासे ये पूछा गया कि वे जम्मू कश्मीर के बंटवारे के लिए सीजफायर लाइन जिसे आज एलओसी या लाइन ऑफ कंट्रोल कहते हैं, उस के लिए क्यों राजी हो गए. करियप्पा ने साफ कहा कि नीति निर्धारित करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है और सेना को सरकार का निर्देश मानना चाहिए. हालांकि, उस वक्त सामरिक जानकार मानते थे कि भारतीय सेना की टेल-अप थी और पूरा विश्वास था कि पूरे जम्मू-कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान से पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित कबीलाईयों को खदेड़ सकती है. लेकिन भारतीय सेना को 31 दिसंबर 1948 और 1 जनवरी 1949 की रात से सीजफायर का ऑर्डर मिल चुका था. सेना इससे जरूर नाखुश थी, लेकिन सरकार का ऑर्डर मानने के लिए सेना बाध्य थी.
यहां पर करियप्पा की राष्ट्रपति महात्मा गांधी से मुलाकात और अहिंसा को लेकर अनबन पर भी चर्चा करना बेहद जरूरी है. आजादी के दौरान फील्ड मार्शल करिअप्पा ने कहा था कि नेशनल सिक्योरिटी के लिए एक मजबूत सेना बेहद जरूरी है. उन्होंने ये भी कहा था कि भारतीय सेना सिर्फ लोगों की रक्षा के लिए ही नहीं है बल्कि उनसे मित्रता भी करना चाहती है. वे भारतीय सेना को द पीपुल्स आर्मी कहना पसंद करते थे. करिअप्पा के इन विचारों से गांधी जी थोड़ा खिन्न हो गए और हरिजन न्यूज पेपर में उनके विचारों का खंडन कर डाला. हालांकि, बाद में हुई एक मुलाकात में दोनों बेहद सौहार्दपूर्ण माहौल में मिले.
हत्या के महज दो हफ्ते पहले ही यानी 18 जनवरी 1948 को राजधानी दिल्ली में गांधी जी की मुलाकात जनरल करिअप्पा से हुई थी. वे उस वक्त वेस्टर्न कमांड के कमांडर बन चुके थे और जम्मू-कश्मीर ऑपरेशन की कमान संभालने जा रहे थे. गांधी जी ने मुलाकात के दौरान जनरल करिअप्पा से कहा कि उनकी इच्छा है कि आप कश्मीर समस्या का हल अहिंसा के माध्यम से निकल सकते हैं. 31 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
जम्मू-कश्मीर को भारत में सफलतापूर्वक मिलाने के बाद करिअप्पा की लोकप्रियता काफी बढ़ गई थी. ऐसे में उस वक्त की सरकार उन्हें थलसेना प्रमुख यानी कमांडर इन चीफ बनाने से हिचकिचा रही थी. लेकिन उनसे दोनों जूनियर कमांडर, लेफ्टिनेंट जनरल नाथू सिंह राठौर और लेफ्टिनेंट जनरल राजेंद्र सिंह जडेजा ने उस वक्त के रक्षा मंत्री बलदेव सिंह को ये कहकर कमांडर इन चीफ का पद ठुकराया दिया था कि जनरल करियप्पा ना केवल उनसे सीनियर हैं बल्कि सैन्य कमांडर के तौर पर ज्यादा काबिल हैं.
थलसेना प्रमुख बनने के बाद जनरल करिअप्पा ने सबसे पहले सैनिकों द्वारा अपने अधिकारियों को सलाम करने के लिए जय हिंद का इस्तेमाल का निर्देश दिया. हालांकि, जय हिंद नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आईएनए सेना इस्तेमाल करती थी. बावजूद इसके जनरल करिअप्पा ने देश भावना के तहत इसे आम-बोलचाल के लिए जरूरी कर दिया. इसके अलावा एनसीसी को खड़ा करने मेें जनरल करिअप्पा ने अहम योगदान दिया. टेरोटेरियल आर्मी यानी टीए का गठन भी जनरल करियप्पा ने किया था.
पूरे 04 साल भारतीय सेना की कमान संभालने के बाद 14 जनवरी 1953 को जनरल करिअप्पा अपने पद से रिटायर हो गए. लेकिन रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने सैनिकों के लिए काम करना नहीं छोड़ा. हालांकि, कुछ सालों के लिए जनरल करिअप्पा ने आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भारत के हाई कमिश्नर के तौर पर भी अपनी सेवाएं दी. वहां से लौटने के बाद उन्होंने पूर्व फौजियों के लिए एक्स-सर्विसमैन वेलफेयर संगठन की नींव रखी. इसके अलावा भारतीय सेना में पूर्व-सैनिकों की जरूरतों के लिए वेटरन्स डायरेक्टर बनाने में अहम भूमिका निभाई. यही वजह है कि हर साल 14 जनवरी को यानी जब जनरल करिअप्पा रिटायर हुए थे, देश में वेटरन्स डे मनाया जाता है.
पूरी दुनिया में फील्ड मार्शल करिअप्पा की प्रसिद्धी तब बढ़ी जब उन्होंने पाकिस्तान के कहने के बावजूद अपने बेटे को पाकिस्तानी सेना के चंगुल से छोड़ने के लिए मना कर दिया था. दरअसल, उनके बेटे के सी करिअप्पा भारतीय वायुसेना के फाइटर पायलट थे. 1965 के युद्ध में पाकिस्तान सीमा पर हवाई हमले के दौरान उनका प्लेन क्रैश हो गया था उन्हें पाकिस्तानी सेना ने बंदी बना लिया था. जैसे ही उस वक्त के राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान को ये पता चला कि भारतीय सेना के पूर्व थलसेना प्रमुख जनरल करिअप्पा का बेटा उनकी गिरफ्त में है, अयूब खान ने जनरल करियप्पा को मैसेज भिजवाया कि वे चाहें तो उनके बेटे को सकुशल रिहा किया जा सकता है. लेकिन फील्ड मार्शल करिअप्पा ने दो टूक कह दिया कि अगर तुम छोड़ना ही चाहते हो तो जितने भी भारतीय युद्धबंदी तुम्हारे कब्जे में हैं तो सब को छोड़ दो. क्योंकि भारतीय सेना के सभी सैनिक मेरे बेटे हैं.
दरअसल, पाकिस्तान का फील्ड मार्शल अयूब खान आजादी से पहले ब्रिटिश इंडियन आर्मी में फील्ड मार्शल करिअप्पा की कमान में काम कर चुका था. इसलिए अयूब खान अपने पूर्व कमांडिंग ऑफिसर यानी सीओ के बेटे को रिहा कर दुनिया के सामने दरियादिली की मिसाल पेश करना चाहता था. लेकिन फील्ड मार्शल करिअप्पा ने साफ कह दिया कि भारत के सभी युद्धबंदियों को छोड़ना होगा, अकेले मेरे बेटे को नहीं छोड़ सकते. इसके बाद से ही फील्ड मार्शल करिअप्पा को भारतीय सेना के फादर की उपाधि दे दी गई.
देश की सेवा, सुरक्षा और भारतीय सेना के शुरुआती सालों में एक सही दिशा देने के अहम योगदान के लिए वर्ष 1986 में जनरल करिअप्पा को सरकार ने फील्ड मार्शल की उपाधि से नवाजा. 15 मई 1993 को 94 वर्ष की उम्र में इंडियन आर्मी के फादर ने आखिरी सांसें ली.
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