रूस-यूक्रेन युद्ध से सबक लेते हुए ड्रोन वॉरफेयर के लिए तैयार हो रही भारतीय सेना के सामने एक बड़ी चुनौती सामने आ गई है. ये चुनौती है नैनो-ड्रोन से जुड़ी. लंबी जद्दोजहद के बावजूद, भारतीय सेना को ऐसी रडार ढूंढने में काफी मुश्किल आ रही है जो बेहद छोटे ड्रोन का रडार-सिग्नेचर (रडार क्रॉस सेक्शन) डिटेक्ट कर पाए.
भारतीय सेना की आर्मी एयर डिफेंस (एडी) के महानिदेशक, लेफ्टिनेंट जनरल सुमेर डिकुना के मुताबिक, “अभी तक 0.001 स्क्वायर मीटर के आरसीएस यानी रडार क्रॉस सेक्शन वाली रडार सिस्टम की बेहद कमी है. ऐसे में भारतीय सेना ज्यादा से ज्यादा रडार लगाने पर विचार कर रही है ताकि इस गैप को भरा जा सके.”
कम रडार क्रॉस सेक्शन वाले ड्रोन को डिटेक्ट करना मुश्किल
चीन में निर्मित डीजेआई-मेविक नैनो ड्रोन का रडार क्रॉस-सेक्शन 0.001 स्क्वायर मीटर ही है. यही वजह है कि आर्मी एयर डिफेंस के माथे पर परेशानी के बल हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध में नैनो ड्रोन का इस्तेमाल सर्विलांस से लेकर इंफ्रेंटी सोल्जर्स को टारगेट करने के लिए इस्तेमाल किया गया है. ऐसे ड्रोन का आरसीएस बेहद कम होता है और जल्दी से रडार डिटेक्ट नहीं कर पाती है. ऐसे ड्रोन के चलते जंग के मैदान में बड़ी संख्या में रूसी सैनिकों की जान गई है. सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो वायरल हुए हैं जहां रूसी सैनिक इन लोएटरिंग म्युनिशन के खौफ से अपनी ही जान लेने के लिए मजबूर हो गए हैं.
लेफ्टिनेंट जनरल डिकुना ने शुक्रवार को राजधानी दिल्ली में मीडिया से बात करते हुए बताया कि हाल ही में सेना ने कुछ स्वदेशी कंपनियों को ऐसे कम आरसीएस वाली रडार का फील्ड ट्रायल किया था. आधा-दर्जन से ज्यादा ऐसी स्वदेशी कंपनियों ने आगरा में ट्रायल दिया था. लेकिन किसी भी कंपनी के रडार का आरसीएस 0.01 स्क्वायर मीटर से कम नहीं था.
टेक्टिकल-स्तर पर देश की एयर डिफेंस की जिम्मेदारी संभालने वाली आर्मी एयर डिफेंस की कोशिश है कि ऐसे में ‘लो लेवल लाइट वेट रडार’ (ट्रिपल एल रडार) का जल्द से जल्द ‘इमरजेंसी रूट से अधिग्रहण’ किया जाए.
नैनो ड्रोन को डिटेक्ट करने वाली रडार की तलाश
जनरल डिकुना ने इस बात पर भी चिंता जताई कि भारतीय सेना के पास अभी तक ऐसी रडार नहीं हैं जो पुख्ता तौर से बता सके कि ऐसे नैनो ड्रोन, कॉम्बैट हैं या नहीं. यानी कि नैनो ड्रोन किसी बम या ग्रेनेड से लैस है.
डीजी, एएडी ने हालांकि, ये जरूर कहा कि नैनो ड्रोन को अमूमन सर्विलांस के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है. क्योंकि इतने छोटे ड्रोन को आर्म्ड करना यानी कॉम्बैट ड्रोन में तब्दील करना थोड़ा मुश्किल होता है.
जनरल डिकुना के मुताबिक, पर्वतीय इलाकों और घाटी में ज्यादा से ज्यादा रडार की जरूरत होती है. साथ ही ऐसे रडार की सख्त जरूरत है जो 6-7 किलोमीटर दूर से ही ड्रोन को डिटेक्ट कर पाए. ऐसा इसलिए ताकि सैनिकों को दुश्मन के ड्रोन को इंगेज करने के लिए पर्याप्त समय मिल पाए.
टेक्टिकल बैटल एरिया है आर्मी एयर डिफेंस की जिम्मेदारी
आर्मी एयर डिफेंस, टेक्टिकल बैटल एरिया (टीबीए) में काउंटर ड्रोन से निपटने के लिए सेना की एक अहम यूनिट है.
जनरल डिकुना ने रूस-यूक्रेन युद्ध, सऊदी अरब के अरामको ऑयल फैसिलिटी पर ड्रोन अटैक, बगदादा (ईराक) में ईरान के टॉप मिलिट्री कमांडर कासिम सुलेमानी की हत्या और जम्मू एयर बेस पर ड्रोन अटैक का उदाहरण देते हुए बताया कि आर्मी एयर डिफेंस, सीमावर्ती क्षेत्रों और कश्मीर घाटी में सेना की छावनियों के लिए काउंटर-यूएएस (अनमैन्ड एरियल सिस्टम) जिम्मेदारी के लिए कमर कस रही है. (https://x.com/adgpi/status/1601411439171960834)
डायरेक्ट एनर्जी वेपन के जरिए ड्रोन वारफेयर
काउंटर-यूएएस सिस्टम में सेना ने डायरेक्टड एनर्जी वेपन (डीईडब्लू) का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया है. इसके लिए सात लेजर वेपन सिस्टम का इस्तेमाल शुरु हो चुका है और नौ अतिरिक्त सिस्टम के लिए आरएफपी (रिक्वेस्ट फॉर प्रपोजल) जारी कर दिया गया है. साथ ही एक किलोमीटर रेंज के हाई पावर माइक्रोवेव की आरएफआई (रिक्वेस्ट फॉर इंफॉर्मेशन) भी जारी की गई है.
इन एनर्जी वेपन के जरिए दुश्मन के ड्रोन और अनमैन्ड एरियल सिस्टम को सॉफ्ट-किल के जरिए मार गिराया जा सकता है.