कच्चाथीवू द्वीप ने हिंदुस्तान की सियासत में भूचाल मचा दिया है. पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कच्चातीवू द्वीप के मुद्दे को उठाया और द्वीप के महत्व को समझाया. एस जयशंकर ने कांग्रेस और डीएमके सरकार को घेरते हुए कहा कि कांग्रेस और डीएमके ने कच्चाथीवू को गंभीरता से नहीं लिया.
एस जयशंकर ने कहा कि 1974 में, भारत और श्रीलंका ने एक समझौता किया जहां उन्होंने एक समुद्री सीमा खींची और समुद्री सीमा खींचने में कच्चाथीवू को सीमा के श्रीलंका की ओर रखा गया था. चीन से मुकाबला करने के लिए सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माने जाने वाले कच्चाथीवू (कच्चातीवू) द्वीप को लेकर एक आरटीआई के खुलासे के बाद सियासी सरगर्मी तेज हो गई है.
विदेश मंत्री ने खंगाले इतिहास के पन्ने
एस जयशंकर ने एक लंबी प्रेस कॉन्फ्रेंस करके इतिहास के पन्नों को खंगाला. एस जयशंकर ने कहा, ये ऐसा मुद्दा नहीं है कि अभी लोकसभा चुनावों से पहले खड़ा हो गया, ये दशकों पुराना मुद्दा है, जिसका मैंने लगभग 21 बार जवाब दिया है. इस मामले पर डीएमके ने इस तरह बर्ताव किया है, जैसे उनकी इसे लेकर कोई जिम्मेदारी नहीं है. एस जशकंर ने कहा, भारत और श्रीलंका जब आजाद हुए तो यह मुद्दा मिलिट्री का भी बना कि इस आइलैंड को कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं. 1960 के दशक में यह मुद्दा उठा, तब इसे लेकर कई तरह की बातें की गईं. भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने द्वीप को अधिक महत्व नहीं दिया था. पंडित नेहरू को इसकी कोई चिंता नहीं थी, एस जयशंकर ने कहा- नेहरू चाहते थे कि जल्द से जल्द कच्चाथीवू से छुटकारा मिले. भारत के सारे अधिकार चले गए, कांग्रेस और डीएमके सरकार को परवाह नहीं थी. साल 1974 में एग्रीमेंट से पहले श्रीलंका के प्रधानमंत्री भारत की तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी से मिलने आए थे. अटॉर्नी जनरल और विदेश मंत्रालय के लीगल डिपार्टमेंट ने उस वक्त भी अपनी राय में कहा कि कच्चाथीवू भारत का है और अगर भारत का दावा पूरा पुख्ता नहीं भी दिखता है तो कम से कम भारत के मछुआरों को वहां आने जाने और फिशिंग का अधिकार भारत को लेना ही चाहिए.
1974 के समझौते के तहत श्रीलंका को सौंपा गया द्वीप
साल 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति श्रीमावो भंडारनायके के बीच इस द्वीप पर समझौता हुआ था. 26 जून, 1974 और 28 जून 1974 में दोनों देशों के बीच दो दौर की बातचीत हुई. ये बातचीत कोलंबो और दिल्ली दोनों जगह हुई थी. बातचीत के बाद कुछ शर्तों पर सहमति बनी और द्वीप श्रीलंका को सौंप दिया गया था. इसमें एक शर्त थी कि भारतीय मछुआरे जाल सुखाने के लिए इस द्वीप का इस्तेमाल करेंगे. साथ ही द्वीप पर बने चर्च पर जाने के लिए भारतीयों को बिना वीजा इजाजत होगी. पर मछुआरों को मछली पकड़ने की इजाजत नहीं दी गई थी.
क्या है ये द्वीप ?
कच्चातिवु द्वीप हिंद महासागर के दक्षिणी छोर पर स्थित है. भारत के दृष्टिकोण से ये द्वीप रामेश्वरम और श्रीलंका के बीच स्थित है. इतिहास के मुताबिक- 285 एकड़ में फैला ये द्वीप 17वीं सदी में मदुरई के राजा रामानंद के राज्य का हिस्सा हुआ करता था. अंग्रेजों के शासन में ये द्वीप मद्रास प्रेसीडेंसी के पास आ गया. फिर साल 1921 में भारत और श्रीलंका दोनों देशों ने मछली पकड़ने के लिए इस द्वीप पर दावा ठोंका. भारत की आजादी के बाद समुद्र की सीमाओं को लेकर भारत और श्रीलंका में समझौते हुए. और बाद में द्वीप का अधिकार श्रीलंका को दे दिया गया.
मां भारती का अंग काट दिया: पीएम मोदी
कच्चातीवू द्वीप को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस और डीएमके पर कड़ा प्रहार किया है. पीएम मोदी ने कहा- ‘श्रीलंका और तमिलनाडु के बीच सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण कच्चातीवू द्वीप को फालतू बताकर कांग्रेस ने मां भारती का एक अंग काट दिया था’ पीएम मोदी ने मेरठ में रैली के दौरान कच्चातीवू द्वीप का मुद्दा उठाया.. पीएम मोदी ने कहा, आरटीआई से आंखें खोलने वाली और चौंका देने वाली खबर सामने आई है. कांग्रेस ने कैसे संवेदनहीन ढंग से कच्चाथीवू दे दिया था. इससे प्रत्येक भारतीय नाराज है और लोगों के दिमाग में यह बात बैठ गई है कि हम कभी कांग्रेस पर भरोसा नहीं कर सकते.
चीन से मुकाबले के लिए अहम है कच्चाथीवू
श्रीलंका में चीनी निवेश के बीच कच्चातीवू द्वीप सामरिक दृष्टि से बेहद ही महत्वपूर्ण है. श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति की वजह से ये ट्रेड रूट पर है, जहां से होकर जहाजों और तेल टैंकरों की बड़ी खेप हर साल गुजरती है. चीन की श्रीलंका में दिलचस्पी हमेशा बनी रहती है. चीन से कर्ज लेने के बाद साल 2022 में श्रीलंका के डिफाल्टर होने के बाद चीन ने श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह को कब्जे में ले लिया है. चीन ने श्रीलंकन बंदरगाह को 99 साल की लीज पर ले रखा है. और अब हंबनटोटा को चीन पर अपने सैन्य अड्डे के रूप में विकसित कर रहा है. हालांकि भारत कई बार विरोध जता चुका है. ऐसे में कच्चाथीवू पर अगर भारत का नियंत्रण होता तो चीन की विस्तारवादी नीति पर लगाम लगाया जा सकता था.
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