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Obituary: सबसे बुजर्ग फाइटर समा गया बादलों में, नेपाल को दिए थे उड़ने के लिए पंख

द्वितीय विश्वयुद्ध में अपने फ्लाइंग से पूरी दुनिया को लोहा मनवाने वाले और नेपाल की हवाई सेवाओं को पंख देने वाले भारत के सबसे वयोवृद्ध फाइटर पायलट अब इस दुनिया में नहीं रहे हैं. दूसरे विश्वयुद्ध में बर्मा (म्यांमार) में असाधारण शौर्य का परिचय देने वाले स्क्वाड्रन लीडर (सेवानिवृत्त) डी एस मजीठिया का 103 साल की उम्र में निधन हो गया है. वे भारतीय वायुसेना के सबसे उम्रदराज फाइटर पायलट माने जाते थे. 

जुलाई के महीने में स्क्वाड्रन लीडर मजीठिया अपना 104वां जन्मदिन मनाने वाले थे. उम्र के इस पड़ाव में भी निधन से पहले तक दलीप सिंह मजीठिया में हौसला और जज्बा कूट-कूट कर भरा था. स्वाड्रन लीडर दलीप सिंह मजीठिया हिंदुस्तान के उन नौजवानों के लिए एक उदाहरण हैं, जो देश के लिए कुछ करना चाहते हैं. जो अपनी माटी की रक्षा के लिए, वायुसेना के लिए कुछ करना चाहते है.

टीएफए आपको बताने जा रहा है फाइटरमैन की असाधारण और रोमांचित कर देने वाली कहानियां. सिर्फ 7 साल के छोटे करियर में स्क्वाड्रन लीडर मजीठियां ने हैरान कर देने वाले मोर्चे पर जंग लड़ी, कई मेडल हासिल किए और भारतीय वायुसेना के हीरो कहलाए.

अपने चाचा से प्रभावित होकर साल 1940 में जब स्क्वाड्रन लीडर दलीप सिंह वायुसेना में शामिल हुए तब भारत में ब्रिटिश शासन था. उस वक्त सेकेंड वर्ल्डवॉर चल रहा था, लिहाजा ब्रिटिश सरकार ने दलीप सिंह को बर्मा के मोर्चे पर भेजा. इस दौरान बहादुर दलीप सिंह बर्मा में फाइटर प्लेन हॉकर हरीकेन के साथ वहां डटे रहे और अपने साहस के चलते सच्चे हीरो कहलाए. सात साल के प्रतिष्ठित करियर में डी एस मजीठिया ने 13 अलग-अलग तरह के विमानों में 1100 से अधिक घंटों की उड़ान भरी.

स्क्वाड्रन लीडर दलीप ने 5 अगस्त 1940 को अपनी पहली उड़ान भरी थी और 22 अगस्त को अपनी पहली सिंगल उड़ान भरी. नवंबर 1940 के अंत तक टाइगर मोथ पर 58 घंटे की उड़ान भरने के बाद, डी एस मजीठिया को सर्वश्रेष्ठ पायलट का पुरस्कार दिया गया. पर दलीप ने अपने पंख हासिल नहीं किए थे, लिहाजा प्रशिक्षण को जारी रखने के लिए अंबाला के नंबर 1 फ्लाइंग ट्रेनिंग स्कूल में अगली नियुक्ति मिली. दलीप ने अंबाला में छह महीने बिताए, 6 महीने के गहन प्रशिक्षण के दौरान लगभग 150 घंटे की उड़ान भरी. प्रशिक्षण के दौरान स्क्वाड्रन लीडर  मजीठिया ने वेपिटी, ऑडेक्स और हॉकर हार्ट जैसे विमान उड़ाए. शामिल. मई 1941 में  मजीठिया को विंग्स मिले तो मील का पत्थर साबित हुआ.

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1940 में छह तटीय रक्षा उड़ानें (सीडीएफ) स्थापित की गईं, जिनमें मुख्य रूप से भारतीय वायु सेना स्वयंसेवक रिजर्व (आईएएफवीआर) के पायलट शामिल थे. जून 1941 में, स्क्वाड्रन लीडर मजीठिया को मद्रास के सेंट थॉमस माउंट स्थित नंबर 1 सीडीएफ में नियुक्त किया गया, जहां उन्होंने अगले 15 महीने बिताए. इस दौरान डीएस मजीठिया ने वेपिटी, हार्ट, ऑडेक्स और अटलांटा समेत कई विमानों का संचालन किया और तटीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण मिशन जैसे गश्त, काफिला एस्कॉर्ट्स और नौसैनिक टोही को अंजाम दिया.

पाकिस्तान के कोहाट स्थित वायुसेना की नंबर 3 स्क्वाड्रन में मजीठिया ने असगर खान (जो बाद में पाकिस्तानी वायुसेना के चीफ बने) और मेजर सैम मानेकशॉ (बाद में भारत के फील्ड मार्शल) के साथ उड़ान भरी थी. इस दौरान उन्होंने स्थानीय कबीलाई विद्रोहियों के खिलाफ कई ऑपरेशन्स किए थे जिसमें बमबारी से लेकर रिकॉनिसेंसऔर पर्चे गिराना था. कुछ दिनों तक अराकान (म्यांमार), बेगमपेट और दिल्ली स्थित मुख्यालय में सेवाएं देने के बाद दलीप को दिसंबर 1945 में अंतर्राष्ट्रीय असाइनमेंट पर आस्ट्रेलिया भेजा दिया गया. द्वितीय विश्वयुद्ध अब खत्म हो चला था. उन्हें आस्ट्रेलिया के ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ का लायसन ऑफिसर नियुक्त किया गया था. यहां पर उन्हें कॉमनवेल्थ फोर्सेंज का डिसइंगेजमेंट देखना था जिसमें ब्रिटिश रॉयल फोर्स सहित आस्ट्रेलियाई और न्यूजीलैंड की सेनाएं भी शामिल थीं. आस्ट्रेलिया में ही उनकी मुलाकात स्थानीय युवती से हुई जो बाद में उनकी पत्नी बनी. 

देश आजादी से कुछ महीने पहले यानी मार्च 1947 में मजीठिया ने वायुसेना से रिटायरमेंट ले लिया और अपने बिजनेस में जुट गए. लेकिन एविएशन को लेकर उनका मोह खत्म नहीं हुआ. महज दो साल बाद यानी अप्रैल 1949 में अपने अंकल सुरजीत सिंह मजीठिया के साथ मिलकर उन्होंने नेपाल की राजधानी काठमांडू में पहली ऐतिहासिक लैंडिंग की थी. सुरजीत सिंह उनदिनों नेपाल में भारत के राजदूत के पद पर थे. नेपाल के राजघराने के कहने पर ही सुरजीत सिंह ने काठमांडू एयरपोर्ट के रनवे को जैसे-तैसे तैयार कराया था. दलीप सिंह ने एक कच्चे रनवे पर मुजफ्फरपुर से उड़ान भरकर काठमांडू पर लैंड की थी. ये रनवे मात्र 150-200 गज का था. इस दौरान दलीप सिंह आसमान से बागमती नदी को देखते हुए ही काठमांडू तक पहुंच पाए थे.

दलीप सिंह गोरखपुर के सराया में जाकर बस गए और यहां कार के बिजनेस के साथ साथ स्टील मिल भी खोल ली. आज गोरखपुर में जो वायुसेना का बेस है वो कभी दलीप सिंह मजीठिया की जमीन हुआ करती थी.  आखिरी दिनों तक उन्होंने गोल्फ खेलना नहीं छोड़ा और साथ ही रोजाना टीचर्स-50 के दो छोटे पैग. 

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