जमीन से लेकर आसमान और समंदर की गहराइयों तक में चीन की निगहबानी अब अमेरिकी ड्रोन से होगी. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के भारत दौरे के दौरान दोनों देशों के बीच एमक्यू-9 ड्रोन की डील होने जा रही है. थलसेना, वायुसेना और नौसेना तीनों को मिलेंगे ये खास अमेरिकी ड्रोन।
जी-20 समिट में शामिल होने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन शुक्रवार को राजधानी दिल्ली पहुंच गए. दिल्ली पहुंचने के बाद बाइडेन सीधे पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 7 लोक कल्याण मार्ग (एलकेएम) स्थित आधिकारिक आवास पर. बेहद कम मौके होते हैं जब कोई विदेशी राष्ट्राध्यक्ष द्विपक्षीय वार्ता के लिए पीएम निवास पहुंचा है. शनिवार-रविवार को जी-20 समिट में शामिल होने से पहले बाइडेन और पीएम मोदी ने रक्षा क्षेत्र में साझीदारी को लेकर चर्चा की. इसमें खास है अमेरिका से लिए जाने वाले एमक्यू-9 रीपर ड्रोन।
एमक्यू-9 रीपर ड्रोन दुनिया के बेहतरीन रिमोटली पायलेटेड एयरक्राफ्ट सिस्टम में से एक है जिसका इस्तेमाल अमेरिकी सेना सहित कई नाटो देश करते हैं. एमक्यू-9 रीपर ड्रोन के आर्म्ड वर्जन यानि कॉम्बैट वर्जन को प्रीडेटर के नाम से जाना जाता है. लेकिन भारत को जो एमक्यू-9 मिलने जा रहे हैं वो अलग तरह के हैं. भारत को एमक्यू-9 के दो वेरिएंट मिलने जा रहे हैं. ये दो वेरिएंट हैं–स्काई-गार्डियन और सी-गार्डियन. थलसेना यानि भारतीय सेना और वायुसेना को मिलेंगे स्काई-गार्डियन. भारतीय नौसेना को मिलेंगे सी-गार्डियन. इसके मायने ये हुए कि जमीन और आसमान की निगहबानी के लिए स्काई-गार्डियन और समंदर में नजर रखने के लिए सी-गार्डियन।
जानकारी के मुताबिक, अमेरिका से भारत कुल 31 एमक्यू-9 ड्रोन लेने जा रहा है. लेकिन ये डील किस्तों में होगी. यानि पहली खेप में 10 ड्रोन लिए जाएंगे, बाकी उसके बाद. कुल 31 ड्रोन में से 15 ड्रोन जो होंगे नौसेना को मिलेंगे यानि 15 सी-गार्डियन इंडियन नेवी को मिलेंगे. इसी तरह से 16 स्काई गार्डियन जो भारत अमेरिका से लेने जा रहा है उसमें से 8-8 थलसेना और वायुसेना को मिलेंगे. यानि एलएसी से लेकर हिंद महासागर में चीन की हर हरकत पर ये एमक्यू-9 रखेंगे पैनी नजर।
ये बताने से पहले की थलसेना, वायुसेना और नौसेना को इतनी संख्या में एमक्यू-9 ड्रोन क्यों चाहिए थोड़ा सा इन रिमोटली पायलेटेड एयरक्राफ्ट सिस्टम के बारे में थोड़ा सा जान लेेते हैं. ये एमक्यू-9 कोई साधारण क्वॉडकॉप्टर नहीं हैं जैसा कि हम देखते हैं कि शादी-बारात में इस्तेमाल होते हैं या फिर जिनके जरिए पाकिस्तान पंजाब और जम्मू-कश्मीर से सटी सीमा पर ड्रग्स और हथियारों की खेप स्मगलिंग करता है. ये किसी फाइटर जेट की ही तरह ब़ड़े ड्रोन होते हैं. इसीलिए इन्हें रिमोटली पायलेटेड एयरक्राफ्ट सिस्टम का नाम भी दिया जाता है. इन एयरक्राफ्ट में पायलट कॉकपिट में बैठकर आसमान में उड़ान नहीं भरता है बल्कि जमीन पर रहकर इन्हें रिमोट से फ्लाई करता है या ऑपरेट करता है. इन एमक्यू-9 ड्रोन की लंबाई 36 फीट होती है और इनका विंगस्पैन यानि चौड़ाई करीब-करीब 80 फीट की होती है।
ये एमक्यू-9 ड्रोन मल्टी रोल-मल्टी मिशन आरपीएएस सिस्टम होते हैं. यानि एक एयरक्राफ्ट कई तरह के रोल अपना सकता है और अलग-अलग तरह के ऑपरेशन भी कर सकते हैं. जैसाकि सी-गार्डियन ड्रोन है जो एंटी-सर्फेस यानि दुश्मन के युद्धपोत को भी मिसाइल से मार गिराने में सक्षम है तो समंदर के कई सौ फीट नीचे ओपरेट कर रही पनडुब्बी को भी तबाह कर सकता है यानि एंटी-सबमरीन ऑपरेशन भी कर सकता है. ये हेल तकनीक यानि हाई ऑल्टिट्यूड लॉन्ग एंड्यूरेंस ड्रोन होते हैं. ये 40-50 हजार फीट की ऊंचाई पर 30-30 घंटे तक उड़ान भर सकते हैं।
एमक्यू-9 का मुख्य चार्टर आईएसआर है यानि इंटेलिजेंस, सर्विलांस और रिकोनिसेंस. आपको यहां पर ये भी बताना जरूरी है कि एमक्यू-9 ड्रोन को बनाने वाली कंपनी, जनरल एटोमिक्स-एविएशन ने वर्ष 2020 में दो सी-गार्डियन ड्रोन भारतीय नौसेना को लीज़ पर दिए थे. इन दोनों ड्रोन की परफॉर्मेंस और खूबियों को देखते हुए ही भारत ने नेवी के लिए इस तरह के 15 ड्रोन लेने का फैसला लिया है. पिछले दो सालों में इन दोनों सी-गार्डियन ड्रोन्स ने हिंद महासागर में 14 मिलियन स्क्वायर किलोमीटर के एरिया पर करीब 10 हजार घंटों की उड़ान भरी यानि 10 हजार घंटे तक नजर रखी।
इसी साल अप्रैल के महीने में जब बंगाल की खाड़ी में म्यांमार के कोको आईलैंड में जब भारत को कुछ संदिग्ध गतिविधि की जानकारी मिली तो इसी भारतीय नौसेना ने लीज पर लिए सी-गार्डियन को इंटेलिजेंस-गैदरिंग के लिए भेजा था. जैसा कि माना जाता है कि म्यांमार ने गुपचुप तरीके से कोको आईलैंड चीन को दे दिया है और चीन यहां हवाई पट्टी और दूसरा इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की फिराक में है. इस तरह की परिस्थितियों के लिए सी-गार्डियन ड्रोन बेहद कारगर साबित होते हैं।
अब आप ये सोच रहे होंगे कि जब भारत के पास अभी तक इस तरह के ड्रोन थे ही नहीं तो हिंद महासागर की निगहबानी कैसे करते थे. तो इसका जवाब ये है कि भारत ने वर्ष। 2013 में अमेरिका से ही 13 पी8आई टोही विमान लिए थे. इन पी8आई विमानों को अमेरिका की ग्लोबल एविएशन कंपनी, बोइंग बनाती है. ये पी8आई टोही विमान एंटी सबमरीन वारफेयर में भी महारत हासिल रखते हैं. लेकिन इस तरह के लॉन्ग रेंज मेरीटाइम पैट्रोलिंग एंड रिकोनिसेंस विमानों को उड़ाने का बहुत ज्यादा खर्चा आता है. जबकि ड्रोन की फ्लाइट बेहद किफायती होती है. एक टोही विमान के एक घंटे उड़ने का मतलब है करीब 35 हजार डॉलर का खर्चा. जबकि सी-गार्डियन की फ्लाइट का खर्चा आएगा मात्र 5 हजार डॉलर. मेरीटाइम एयरक्राफ्ट के मुकाबले ड्रोन के उड़ान में 90 प्रतिशत तक कम फ्यूल की खपत होती है. टोही विमान ज्यादा से ज्यादा 10 घंटे तक एक बार में उड़ान भर सकता है जबकि सी-गार्डियन जैसा ड्रोन 27-30 घंटे तक नॉन-स्टॉप फ्लाइ कर सकता है. ड्रोन को ओपरेट करने के लिए 50 प्रतिशत कम स्टाफ की जरूरत होती है. इसके अलावा पैट्रोलिंग एयरक्राफ्टकी 10 घंटे की उड़ान के बाद पायलट, को-पायलट और बाकी क्रू-मेम्बर्स को काफी ज्यादा थकान हो जाती है जबकि सी-गार्डियन ड्रोन में ऐसा कुछ नहीं होता।
ऐसे में आने वाले समय में मेरीटाइम सर्विलांस इन्ही सी-गार्डियन ड्रोन्स से ही की जाएगी. तो इसके मायने ये हैं कि पी8आई जैसे टोही विमान का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. इसका जवाब है, नही. इन पी8आई विमानों का इस्तेमाल बेहद ही डेडीकेडेड मिशन के लिए किया जाएगा. जहां आपको पता है कि दुश्मन की पनडुब्बी समंदर के नीचे कहां घूम रही है और कैसे उसे नेस्तनाबूत करना है यानि दुश्मन के युद्धपोत को तबाह करने के लिए. जैसा कि हम लगातार देख रहे हैं कि हिंद महासागर में चीन की गतिविधियां लगातार बढ़ती जा रही है, ऐसे में चीन की गतिविधियों पर नजर रखने और लगाम लगाने के लिए सी-गार्डियन जैसे ड्रोन्स की सख्त जरूरत पड़ने वाली है. अभी तक अमेरिका के अलावा इंग्लैंड, जापान और बेल्जियम जैसे देशों की नौसेनाएं भी सी-गार्डियन ड्रोन्स का इस्तेमाल कर रही हैं।
भारतीय सेना यानि थलसेना को इन एमक्यू-9 ड्रोन्स की जरूरत एलएसी के लिए है. वर्ष 2020 में पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी की झड़प के बाद भारतीय सेना ने चीन की मूवमेंट पर नजर रखने के लिए नौसेना के पी8आई विमानों का ही इस्तेमाल किया था. चीन से सटी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल, एलएसी 14-15 हजार फीट से लेकर 18 हजार फीट से होकर गुजरती है. इतनी उंचाई पर सैनिकों की तैनाती बेहद मुश्किल होती है. ऐसे में स्काई-गार्डियन ड्रोन्स से इतनी उंचाई वाले सीमावर्ती इलाकों पर आसानी से नजर रखी जा सकती है. वायुसेना के पास तो पूरे देश की हवाई सीमा की सुरक्षा की जिम्मेदारी है. ऐसे में वायुसेना को भी एलओसी से लेकर एलएसी तक की एयर-स्पेस की चौकसी रखने के लिए स्काई-गार्डियन की जरूरत है।
(नीरज राजपूत देश के जाने-माने डिफेंस-जर्नलिस्ट हैं और हाल ही में रूस-यूक्रेन युद्ध पर उनकी पुस्तक ‘ऑपरेशन Z लाइव’ (प्रभात प्रकाशन) प्रकाशित हुई है.)