1962 में चीन द्वारा युद्धबंदी बनाए जाने वाले रिटायर्ड ब्रिगेडियर ए जी एस बहल का 84 वर्ष की उम्र में निधन हो गया है. रिहाई होने के बाद ब्रिगेडियर बहल ने फिर से सेना में अपनी सेवाएं दी थी और 1965 और 1971 के जंग में अहम योगदान दिया था. करीब 10 साल पहले उन्होनें 1962 युद्ध पर अपनी आप बीती लिखी थी, बैटल ऑफ नमका छू–एज आई सा इट.
जानकारी के मुताबिक, ब्रिगेडियर बहल पिछले कुछ दिनों से चंडीमंदिर (चंडीगढ़) स्थित कमांड हॉस्पिटल में भर्ती थी और वहीं पर रविवार को उन्होनें आखिरी सांसें लीं. सोमवार को चंडीगढ़ में ही उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा.
ब्रिगेडियर बहल, 1961 में फौज में शामिल हुए थे. वे आर्टिलरी (तोपखाने) के ऑफिसर थे और 1962 के चीन युद्ध में भारतीय सेना की 17 पैरा फील्ड रेजीमेंट में तैनात थे. अक्टूबर 1962 में उनकी रेजीमेंट को अरूणाचल प्रदेश की 7 इंफेन्ट्री ब्रिगेड से अटैच कर चीन से सटी लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) के नमका-छू सेक्टर में तैनात किया गया था. चीन के खिलाफ युद्ध में वे एक युवा ऑफिसर के तौर पर बहादुरी से लड़े थे और अपनी गन (तोप) के गोले खत्म होने तक मोर्चे पर डटे रहे थे. बाद में चीन की पीएलए सेना ने ब्रिगेडियर बहल और उनके 38 साथियों को बंदी बना लिया था. कई महीनों तक वे अपने साथियों के साथ चीन की सीमा में एक पीओडब्लू (युद्धबंदी) कैंप में रहे थे.
1963 में चीन ने ब्रिगेडियर बहल और उनके साथियों को रिहा कर दिया था. रिहाई के बाद वे फिर से अपनी 17 पैरा फील्ड रेजीमेंट से जुड़ गए थे. अपने लेख में ब्रिगेडियर बहल ने लिखा है कि जब वे सभी युद्धबंदी भारत लौटे तो रांची में एक विशेष कैंप में भेजा गया था. वहां पर चीन से लौटे सभी युद्धबंदियों से कड़ी पूछताछ की जाती थी. भारतीय सेना इस बात की तस्दीक करती थी कि कही ये युद्धबंदी चीनी सेना से इन्डोकेट्रेनेट (प्रभावित) तो नहीं हो गए हैं. ब्रिगेडियर बहल के मुताबिक, उनके ट्रूप कमांडर और 38 साथियों को सेना ने क्लीन-चिट देते हुए अपनी रेजीमेंट में सेवा देने के मंजूरी दे दी थी.
दो साल बाद ही 1965 के युद्ध में ब्रिगेडियर बहल रण ऑफ कच्छ में तैनात थे और पाकिस्तान के खिलाफ ऑपरेशन किए थे. इसके बाद 1971 के युद्ध में भी ब्रिगेडियर बहल ने अपनी बहादुरी का परिचय दिया था. बाद में वे 1890 लाइट रेजीमेंट के कमांडिंग ऑफिसर (सीओ) के पद पर रहे. 1995 में एनसीसी (नेशनल कैडेट कोर) के डिप्टी डायरेक्टर जनरल (डीजी) की रैंक से वे रिटायर हुए थे. रिटायर के बाद वे चंड़ीगढ़ में रहते थे.
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