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नौशेरा का शेर: पाकिस्तान ने रखा था इनाम

“पूरी दुनिया की निगाहें हमारे ऊपर हैं…मृत्यु तो आज या कल आनी ही है. लेकिन यहां (रणभूमि में) मरने से अच्छी क्या हो सकती है.” ये शब्द थे नौशेरा के शेर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के अपने साथी सैनिकों के लिए जब जंग के मैदान में कूच करने जा रहे थे. हर साल 6 फरवरी को नौशेरा की लड़ाई को याद किया जाता है. क्योंकि इसी दिन 1948 में जम्मू-कश्मीर की जंग में नौशेरा भारत का हिस्सा बना था. 

ये वही ब्रिगेडियर उस्मान थे जिन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तानी सेना प्रमुख बनने के ऑफर को ठुकराया दिया था. लेकिन नौशेरा में पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित कबीलाइयों को मार गिराने के बाद पाकिस्तान ने इन्हीं ब्रिगेडियर उस्मान पर 50 हजार का इनाम रख दिया था.

1947 में आजादी के दौरान ब्रिगेडियर उस्मान उन चुनिंदा अधिकारियों में थे जो ब्रिगेडियर की रैंक पर थे. द्वितीय विश्वयुद्ध में बर्मा (म्यांमार) में अपनी वीरता और सैन्य-नेतृत्व का लोहा मनवा चुके ब्रिगेडियर उसमान को भारत और पाकिस्तान, दोनों ही अपनी-अपनी सेना में लेना चाहते थे. उसी दौरान जिन्ना ने ब्रिगेडियर उसमान को अपनी सेना का चीफ (प्रमुख) बनाने का प्रस्ताव दिया था.  

आजादी (बंटवारे) के फौरन बाद यानी अक्टूबर 1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर को लेकर जंग शुरु हो गई. लेफ्टिनेंट जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) केएम करियप्पा के आदेश पर ब्रिगेडियर उस्मान को पाकिस्तानी कबीलाईयों के कब्जे से पूंछ और झंगड़ इलाकों को आजाद कराकर तिरंगा फहराने की जिम्मेदारी दी गई थी. क्योंकि करियप्पा को कीपर के नाम से जाना जाता था. इसलिए ब्रिगेडियर उस्मान ने इस ऑपरेशन को ऑप कीपर नाम दिया था. 

ब्रिगेडियर उस्मान को 50 वीं पैराशूट रेजीमेंट की कमान दी गई थी. ब्रिगेडियर ने कसम खाई थी कि जब तक झंगड़ को भारत में नहीं मिला देंगे वे सैनिक की तरह ही जमीन पर ही सोएंगे. ब्रिगेडियर रैंक का अधिकारी होने के चलते वे चाहते थे तो रणभूमि से दूर रहकर फोन पर अपने मातहत अधिकारियों और कमांडिंग ऑफिसर्स को दिशा-निर्देश दे सकते थे. लेकिन वे खुद फ्रंट से लीड करते थे. 

नौशेरा की जंग के दौरान भारतीय सेना ने 1000 पाकिस्तानी कबीलाइयों को मार गिराया और इतने ही घायल हुए थे. इतनी बड़ी संख्या में अपने साथियों की मौत से पाकिस्तानी कबीलाई नौशेरा छोड़कर भाग खड़े हुए थे. भारतीय सेना के किल्ड इन एक्शन थे मात्र 32 और घायलों की संख्या थी 100. नौशेरा पर भारतीय सेना का कब्जा हो गया और तभी से ब्रिगेडियर उस्मान को नौशेरा के शेर की उपाधि दी गई थी. ब्रिगेडियर उस्मान के जबरदस्त प्रहार से पाकिस्तानी सेना में हड़कंप मच गया और उनकी गिरफ्तारी या फिर मार गिराने पर 50 हजार का इनाम रख दिया. 

एक बार जब पाकिस्तानी कबीलाई मस्जिद में शरण लिए हुए थे तो उन्होंने मस्जिद पर हमला करने से गुरेज नहीं किया. उनका मानना था कि दुश्मनों को मार गिराना जरूरी था. इस घटना से भी सभी भारतीय सैनिकों में उनकी इज्जत काफी बढ़ गई थी. 

नौशेरा को फतह करने के बाद बारी थी झंगड़ की. नौशेरा में मुंह की खाने के बाद अब पाकिस्तानी सेना पूरी तरह जंग के मैदान में कूद चुकी थी और तोप से भारत के मोर्चों पर गोलाबारी कर रही थी. आखिरकार तीन महीने की जंग के बाद झंगड़ पूरी तरह भारत का हिस्सा बन गया. इसके बावजूद पाकिस्तान ने गोलाबारी बंद नहीं की. भारतीय सैनिकों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए पाकिस्तानी अखबार ब्रिगेडियर उस्मान के मरने की गलत खबरें छापते रहते थे. ऐसी ही एक खबर को झुठलाने के लिए उन्होंने मैसेज जारी किया कि मैं पूरी तरह से फिट हूं और फलफूल रहा हूं…मैं अभी भी जिंदगी जीने वाली दुनिया में हूं. लेकिन इस मैसेज के बाद वे ज्यादा देर जिंदा नहीं रह पाए. 

3 जुलाई 1948 की शाम ब्रिगेडियर उस्मान अपने ब्रिगेड हेडक्वार्टर में मीटिंग के बाद टहल रहे थे. इसी दौरान पाकिस्तानी सेना ने ब्रिगेड हेडक्वार्टर पर गोलाबारी शुरु कर दी. एक गोला ब्रिगेडियर उस्मान के करीब आकर गिरा और भारत का सबसे सीनियर मिलिट्री कमांडर जंग के मैदान में वीरगति को प्राप्त हो गया. आज भी ब्रिगेडियर उस्मान अकेले ऐसे सैन्य अफसर हैं जिन्होंने इस रैंक (ब्रिगेडियर) पर रहते हुए रणभूमि में सर्वोच्च बलिदान दिया. उस वक्त ब्रिगेडियर उस्मान की उम्र मात्र 36 साल (12 दिन कम) थी. कहते हैं कि अगर वे जिंदा रहते तो भारतीय सेना के प्रमुख जरूर बनते. वे भारतीय सेना में फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ से 3 दिन सीनियर थे. 

ब्रिगेडियर उस्मान की अंतिम यात्रा राजधानी दिल्ली में निकाली गई थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गवर्नर जनरल  लॉर्ड माउंटबेटन सहित बड़ी संख्या में आम नागरिक शामिल हुए थे. उनकी बहादुरी, अदम्य साहस और कुशल नेतृत्व के लिए सरकार ने देश के दूसरे सबसे बड़े वीरता मेडल महावीर चक्र से नवाजा था. आज भी उनका मेमोरियल दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया (यूनिवर्सिटी) में है. इसका अलावा झंगड़-नौशेरा में जिस चट्टान के करीब उन्होंने आखिरी सांसें ली थी वहां भी उनकी याद में भारतीय सेना ने एक मेमोरियल बनाया है. 

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