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Ukraine युद्ध के बावजूद Putin को इतना समर्थन क्यों (TFA Special)

भारतीय आम चुनाव में चर्चा का दौर इसलिए गर्म नहीं है कि मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की जीत होगी या हार बल्कि बहस इस बात पर है कि बीजेपी 400 सीटों का आंकड़ा पार करेगी या नहीं. ठीक वैसे ही पांच हजार किलोमीटर दूर भारत के मित्र-देश रुस में भी चर्चा ये थी कि मौजूदा राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को कितने प्रतिशत वोट पड़ेंगे. क्योंकि उनकी जीत पहले से ही पक्की मानी जा रही थी–भले ही पश्चिमी मीडिया उनके खिलाफ जितना मर्जी हो. 

पश्चिमी देशों को भले ही पुतिन के जीतने पर शंका हो लेकिन जिन्होंने करीब से रुस को देखा है और पुतिन की कार्यशैली पर नजर रखी है उन्हें जरा भी शक नहीं था. तीन दिनों तक चले मतदान (15-17 मार्च) के खत्म होने के महज कुछ घंटे के भीतर ही रुस के चुनाव आयोग ने प्रारंभिक मतगणना के बाद ही ऐलान कर दिया कि पुतिन छठी बार (पांचवी बार राष्ट्रपति) रुस के राष्ट्राध्यक्ष बनने जा रहे हैं. उन्हें अपने देश की 87 प्रतिशत जनता का समर्थन मिला है. चुनाव में पुतिन के तीनों प्रतिद्वंदियों की बुरी तरह हार हुई. 

24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर आक्रमण (स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन) के दौरान अमेरिका और यूरोप सहित लगभग सभी पश्चिमी देशों ने रुस से नाता तोड़ लिया था. पश्चिमी मीडिया ने रुस के राष्ट्रपति पुतिन के खिलाफ जमकर लिखना शुरु कर दिया. बाहरी दुनिया को ऐसी तस्वीर दिखाई जाने लगी जिसने लगा कि पुतिन अपने देश का समर्थन खो रहे हैं. नए प्रेस कानून के चलते पश्चिमी देशों से संचालित अंतरराष्ट्रीय मीडिया के पत्रकारों ने मास्को को छोड़ दिया. भले ही ये रुस के नए कानून के विरोध में था लेकिन डर गिरफ्तारी का ज्यादा था. क्योंकि नए कानून में पुतिन के स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन को युद्ध या लड़ाई कहने पर भी अपरोक्ष रूप से पाबंदी थी. ऐसे में मास्को और रुस की सही सही तस्वीर दिखाने में पश्चिमी मीडिया नाकाम रहा. 

पश्चिमी देशों की मीडिया कवरेज के इतर पूरे रूस में पुतिन का समर्थन तेज हो गया. क्योंकि पुतिन की तरह ही रुस की जनता भी कोल्ड-वॉर वाली अपनी सुपर-पावर वाली इमेज को बरकरार रखना चाहती थी. एक ऐसा रुस (सोवितय संघ जैसा) जो सीधा अमेरिका की बादशाहत को चुनौती दे सकता हो. सोवियत संघ के टूटने से रुसी जनता ने अपने देश की बदतर हालात देखी थी. लेकिन उस हालात से अगर किसी एक शख्स ने रुस को उबारा तो वो कोई और नहीं केजीबी का एक अदना और गुमनाम पूर्व एजेंट (पुतिन) था.  

90 के दशक में रूसी जनता ने देखा था कि किस तरह उनके देश की अर्थव्यवस्था की कितनी बुरी गत हो गई थी. मास्को तक की सड़कों पर खून-खराबा और माफिया राज कायम हो गया था. लोगों को खाने के लाले तक पड़ गए थे. अपने हथियारों और आक्रामक डिप्लोमेसी के जरिए अमेरिका की नींद उड़ाए रखने वाला रुस अब यूएस की एक डांट से ही भारत जैसे परम-मित्र को क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक देने से भी घबराने लगा था. ऐसे समय में वर्ष 1999 में पुतिन ने देश की कमान संभाली. पहले कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर और फिर 2000 से पूर्णकालिक के तौर पर. 

रुस की गद्दी पर बैठने के साथ ही पुतिन ने सबसे पहले देश से माफिया राज का सफाया किया. पुतिन ने साफ कर दिया कि पूरे देश के संचालन की जिम्मेदारी क्रेमलिन (रूसी राष्ट्रपति के आधिकारिक निवास और ऑफिस) से होगी. इसके बाद पुतिन ने देश की अर्थव्यवस्था को संभाला और हथियारों के क्षेत्र में फिर से रुस को उसी मुकाम पर पहुंचाया जहां कभी यूएसएसआर (सोवियत संघ) था. इस दौरान पुतिन ने अमेरिका के नेतृत्व में नाटो में भी शामिल होने का आग्रह किया कि रुस को यूरोप (पश्चिमी देशों) के समतुल्य सम्मान मिल सके. लेकिन पुतिन को मायूसी हाथ लगी. ऐसे में पुतिन ने चीन जैसी उभरती महाशक्तियों से संबंधों को मजबूत करना शुरु कर दिया. 

रुस को ‘टेबल ऑफ वर्ल्ड पावर’ में वापस लाने के लिए वर्ष 2007 में टाइम  मैगजीन ने पुतिन को ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ का खिताब दिया था. वर्ष 2014 में भी टाइम मैगजीन ने पुतिन को रनर-अप चुना था. लेकिन ये वो साल था जब पुतिन ने दुनिया को अपने मसल-फ्लैक्शिंग दिखाना शुरु कर दिया था. पुतिन ने फरवरी-मार्च 2014 में यूक्रेन के एक अहम हिस्से क्रीमिया पर ब्लड-लेस तख्तापलट कर दिया. यूक्रेन की सेना ने बिना किसी विरोध के रूसी सेना के सामने सरेंडर कर दिया. कभी जूडो-कराटे खेलते, कभी शर्टलेस घोड़े पर सवार और कभी साइबेरिया की जमी हुई बर्फ की लेक में जंप लगाते हुए दिखने वाले पुतिन को लोगों ने देखा कि कैसे ट्रक चलाते हुए मेनलैंड रुस से क्रीमिया ब्रिज पार कर रहे हैं. 

अमेरिका और पश्चिमी देश जब तक कुछ समझ पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी. हालांकि, जी-8 समूह से रुस को बेदखल कर दिया गया और (थोड़े बहुत) प्रतिबंध जरुर लगाए गए थे लेकिन सामरिक जानकार मानते हैं कि उस वक्त पुतिन को ना रोकने में दुनिया ने गलती कर दी थी. लेकिन क्रीमिया के कब्जे से यूक्रेन और अमेरिका दोनों ही अलर्ट हो गए. अमेरिका ने यूक्रेन को सैन्य तौर से मजबूत करना शुरु कर दिया. इंटेलिजेंस से लेकर आधुनिक हथियार और मिलिट्री ट्रेनिंग तक यूएस ने यूक्रेन को मुहैया कराई. शायद उसी का नतीजा था कि 2022 में जब पुतिन की सेना ने कीव पर हमला किया तो जो ऑपरेशन महज कुछ दिनों या हफ्तों का लग रहा था और दो साल बाद भी पूरा नहीं हो पाया है. यूक्रेन ने अमेरिका और नाटो देशों की मदद से रूसी सेना को जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है. एक बड़ी सेना और हथियारों के आयुद्य-स्टोर का ही नतीजा है कि रुस जंग को दो साल बाद तक खींच पाया है. अन्यथा परिणाम बेहद गंभीर हो सकते थे. शुरुआती हफ्तों में इंफो-वार में पिछड़ने के बाद रुस ने अब पश्चिमी देशों को साइक्लोजिक ऑपरेशन में भी पीछे छोड़ दिया है. 

क्रीमिया पर कब्जे के बाद लगे प्रतिबंध से पुतिन ने भी एक बड़ी सीख ली. एक समय में अनाज के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहने वाला रुस आज एग्रीकल्चर से लेकर फूड प्रोसेसिंग तक में अग्रणी देश है. रुस में आज राजधानी मास्को के रेड स्क्वायर से लेकर सुदूर-पूर्व के व्लादिवोस्टोक और यूक्रेन से सटे बेलगोरोड और रोस्तोव (ऑन डॉन) तक चारों तरफ खुशहाली, इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट, लाइफ-स्टाइल शोरूम, मॉल और वेल-ड्रेस लोग दिखाई पड़ते हैं तो साइबर और स्पेस तक में पुतिन के देश ने जबरदस्त तरक्की की है. 

यूक्रेन युद्ध से पुतिन ने एक बड़ी सीख ये ली है कि ‘यूरोप को बचाने’ के बजाए भारत और दूसरे एशियाई देशों सहित ग्लोबल-साउथ के ज्यादा करीब आ रहा है. शायद यही वजह है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन चुनिंदा राष्ट्राध्यक्षों में शामिल हैं जिन्होंने सबसे पहले पुतिन को एक बार फिर राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने के लिए सार्वजनिक तौर से बधाई दी है (https://x.com/narendramodi/status/1769695046268309797?s=46).

(नीरज राजपूत, रुस-यूक्रेन युद्ध पर लिखी बुक ‘ऑपरेशन जेड लाइव ‘के लेखक भी हैं. उन्होंने युद्ध के शुरूआती हफ्तों में वॉर-जोन से रिपोर्टिंग की थी.)

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