July 7, 2024
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रणभूमि में सैनिकों से पहले पहुंचते हैं Combat Engineer

राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु के रामेश्वरम गए थे. क्योंकि ये वो स्थान है जहां से भगवान राम ने लंका तक पहुंचने के लिए समंदर पर पुल बनाया था. ऐसा राम-सेतु जिसका प्रमाण आज हजारों साल बाद तक मौजूद हैं. यानी ऐसा पुल जिससे सैनिक युद्ध-क्षेत्र में आसानी से पहुंच सकें. ठीक वैसे ही जैसा आज की आधुनिक सेनाओं के कॉम्बेट इंजीनियर्स करते हैं. भारतीय सेना में उनकी खास कोर ऑफ इंजीनियर्स है, जिसका आदर्श वाक्य है ‘सर्वत्र’ यानी जो हर जगह मौजूद रहता है. 

आज से पांच हजार साल पहले समंदर पर पुल बनाना लगभग असंभव माना जाता था. ऐसे में भगवान राम ने रामेश्वरम में समुद्र-देवता यानी वरुण से रास्ता देना का आह्वान किया था. जब समंदर ने प्रार्थना नहीं सुनी तो भगवान राम ने अपने बाणों से समंदर को सुखाने की तैयारी कर ली. इससे वरुण देवता घबरा गए और भगवान राम को लंका पार करने का मार्ग सुझाया. 

समुद्र देवता ने बताया कि राम की सेना में दो ऐसे वानर हैं जो पानी में जो भी वस्तु फेंकते हैं वो कभी डूबती नहीं है. वे दोनों वानर थे नल और नील. वरुण देव ने भगवान राम को बताया कि ये दोनों वानर समंदर पर पुल का निर्माण कर सकते हैं. यानी वे दोनों ऐसे इंजीनियर हैं जो रणभूमि तक पहुंचने में मदद कर सकते हैं. रणभूमि यानी लंका जहां रावण ने माता सीता को कैद कर रखा था और शांति प्रस्ताव के जरिए वापस करने से मना कर दिया था. ऐसे में युद्ध होना जरूरी था. 

यही वजह है कि रामेश्वरम से लंका तक ब्रिज बनाना बेहद जरूरी था. ठीक वैसे ही जैसा आज की आधुनिक सेनाओं को जब भी युद्ध के मैदान में पहुंचना होता है तो सैनिकों से पहले कॉम्बेट-इंजीनियर्स वहां पहुंच जाते हैं. ये कॉम्बेट इंजीनियर, सैनिकों, टैंक, तोप और मिलिट्री व्हीकल्स को रणक्षेत्र तक पहुंचाने के लिए नदी-नालों पर ब्रिज बनाते हैं. इसके अलावा उंचे उंचे पहाड़ों पर टनल, गुफा और सड़क तक का निमार्ण करते हैं. फॉरवर्ड लोकेशन पर लड़ाकू विमानों और हेलीकॉप्टर के ऑपरेशन्स के लिए हवाई पट्टियों का निर्माण तक करते हैं. 

भारतीय सेना की कोर ऑफ इंजीनियर्स का गठन ब्रिटिश काल में करीब 240 साल पहले हुआ था. इस कोर को ‘द-सैपर्स’ के नाम से भी जाना जाता और इसके तीन मुख्य अंग है जिन्हें ‘बॉम्बे सैपर्स’, ‘बंगाल सैपर्स’ और ‘मद्रास सैपर्स’ के नाम से जाना जाता है. आज भी जब कहीं भारतीय सेना ऑपरेशन में जाती है तो सैपर्स पहले वहां पहुंच जाते हैं. युद्ध शुरु होने से पहले और युद्ध खत्म होने के बाद भी सैपर्स रणभूमि में मौजूद रहते हैं. क्योंकि शत्रु की लैंड-माइंस और बमों को निष्क्रिय करना की जिम्मेदारी भी कॉम्बेट इंजीनियर्स की होती है. 

ठीक वैसे ही रामायण के कॉम्बेट इंजीनियर्स नल और नील ने रावण से युद्ध शुरु होने से पहले वानर सेना की मदद से समंदर में पत्थर डाल-डाल कर पुल का निर्माण शुरु किया था. नल और नील पत्थरों को समंदर में डालने से पहले वे उस पर राम-राम लिखना नहीं भूलते थे. यही वजह है कि उस पुल को राम-सेतु का नाम दिया गया. पत्थर के साथ-साथ वृक्षों के तनों को भी समंदर में डाला गया ताकि पूरी वानर सेना उसे पार कर सके. माना जाता है कि इस पुल को बनाने में नल और नील को पूरे पांच दिन लगे थे. ये पुल करीब 80 मील यानी करीब करीब 10 योजन लंबा था जो रामेश्वरम से लंका के एक द्वीप से जोड़ता है.

यहां तक की एक छोटी सी गिलहरी ने भी इस पुल बनाने के लिए समंदर में मिट्टी और छोटे-छोटे कंकड़ डाले थे. रामायण-युग के बाद ये पुल समंदर में डूब गया था और भगवान राम के अस्तित्व के साथ साथ इस पुल के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े होने लगे. लेकिन कुछ साल पहले जब अमेरिका की स्पेस एजेंसी नासा ने गल्फ ऑफ मन्नार की सैटेलाइट तस्वीरें खींची तो उसमें समंदर के नीचे एक पुल बना हुआ दिखाई पड़ने लगा. तब जाकर पूरी दुनिया को यकीन हुआ कि रामायण में जिस राम-सेतु का जिक्र है वो कोई काल्पनिक कहानी नहीं हकीकत है. राम-सेतु के ऐतिहासिक-प्रमाण मिलने के साथ ही भगवान राम का अस्तित्व भी सामने आ गया और प्रमाणित हो गया कि भगवान राम वाकई भारत के गौरवशाली इतिहास का हिस्सा हैं. 

 

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