श्रीलंका में हुए राष्ट्रपति चुनाव में वामपंथी विचारधारा रखने वाले अनुरा कुमारा दिसानायके को जीत हासिल हुई है. पिछले 20 सालों से श्रीलंका की राजनीति में सक्रिय अनुरा को चीन का समर्थक माना जाता था. हालांकि, चुनाव से पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर और एनएसए अजीत डोवल से मुलाकात के चलते अनुरा (एकेडी) का रूख अब भारत के प्रति बदल चुका है.
रविवार को श्रीलंका में हुए चुनाव में दूसरे नंबर पर रहे हैं पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के बेटे साजीथ प्रेमदासा. मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे तीसरे स्थान पर आए हैं.
वर्ष 2022 में अरागालय यानी जनता के विद्रोह के बाद पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए करीब 1.70 करोड़ मतदाताओं ने वोट किया था. इस बार चुनाव में देश की आर्थिक संकट, महंगाई, राजनीति में कुछ परिवारों को बोलबाला सहित चीन की दखलंदाजी और भारत का साथ जैसे मुख्य मुद्दे थे.
पिछले दो सालों में विक्रमसिंघे ने श्रीलंका को आर्थिक तंगी से निकालने का प्रयास जरूर किया लेकिन अभी भी मिडिल क्लास और निचला तबका गरीबी और तंगहाली जीने को मजबूर है.
विक्रमसिंघे ने चीन के प्रभाव को कम करने और भारत से नजदीकियां बढ़ाने के लिए पूरे एक साल के लिए चीनी युद्धपोत और पनडुब्बियों को आइलैंड-नेशन में आने पर रोक लगा दी थी.
विक्रमसिंघे के खिलाफ हालांकि चुनाव में उनके तत्कालीन राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे (2022) की लीगेसी को ही आगे बढ़ाना एक बड़ा फैक्टर साबित हुआ. साथ ही अरागलय के बाद से श्रीलंका की जनता, राजनीतिक-परिवारवाद को बढ़ावा देने के पक्ष में कम दिखाई पड़ रही थी. ऐसे में निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ रहे विक्रमसिंघे के लिए चुनाव जीतना आसान नहीं था.
ऐसे में जनथा विमुखथी पेरामुना (जेवीपी) पार्टी के अनुरा ने बाजी मार ली है. वामपंथी विचारधारा वाली इस पार्टी को चीन का हिमायती माना जाता है. राजनीतिक पृष्ठभूमि और संपन्न परिवार से आने के चलते अनुरा ने चुनावी अभियान के दौरान सजीथ को जबरदस्त तरीके से निशाना बनाया था.
अनुरा, देश में राष्ट्रपति प्रणाली खत्म करने के पक्षधर हैं और संसदीय प्रणाली पर जोर दे रहे हैं. खास बात ये है कि अनुरा की जेवीपी पार्टी 70-80 के दशक में हिंसात्मक विद्रोह में विश्वास रखती थी. लेकिन अब हिंसा का रास्ता त्याग कर लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता पर काबिज हुई है. इसके लिए जेवीपी ने दूसरी राजनीतिक पार्टियों के साथ मिलकर गठबंधन भी तैयार किया था.
घरेलू मुद्दों के साथ श्रीलंका की जियो-स्ट्रेटेजिक लोकेशन ने भी चुनाव को प्रभावित किया है. भारत को घेरने और हिंद महासागर में अपना दबदबा कायम करने में जुटा चीन, श्रीलंका के जरिए अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव) पूरा करने में जुटा है. इसके लिए चीन ने पहले श्रीलंका को कर्ज तले दबाया और फिर हम्बनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर लिया और कोलंबो पोर्ट सिटी बनाने का ख्वाब दिखाया.
भारत की नेबरहुड फर्स्ट नीति में श्रीलंका एक अहम स्थान रखता है. यही वजह है कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल में पहली यात्रा कोलंबो की थी. कचाथिवू आइलैंड और मछुआरों को लेकर जरूर दोनों देशों के बीच तनातनी रही है लेकिन आईएनएस शल्की पनडुब्बी को कोलंबो पोर्ट पर मिले स्वागत ने साफ कर दिया है कि दोनों देशों की नौसेनाएं रक्षा सहयोग के लिए तैयार हैं.
हाल ही में अडानी ग्रुप ने कोलंबो बंदरगाह के कंटेनर टर्मिनल में भारी निवेश किया है ताकि दोनों देशों के लॉजिस्टिक को इंटीग्रेट किया जा सके. दोनों देशों ने एक बार फिर से पर्यटन के जरिए कनेक्ट बढ़ाने पर जोर दिया है. भारत ने अगर बुद्ध-सर्किट के जरिए श्रीलंका के लोगों को आकर्षित करने पर जोर दिया है तो श्रीलंका भी रामायण-ट्रेल के जरिए ज्यादा से ज्यादा भारतीय पर्यटकों को लुभाने का प्रयास कर रहा है. दोनों देशों ने डिजिटल पेमेंट में भी इंटीग्रेशन किया है.
यही वजह है कि मौजूदा राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे चुनावी अभियान में स्ट्रेटेजिक ऑटोनोमी के जरिए भारत और चीन, दोनों से संबंध बनाकर रखने पर जोर दे रहे थे. सजीथ प्रेमदासा ने तो भारत के साथ संबंधों को एक मात्र महत्वपूर्ण रिलेशनशिप करार दिया था.
सबसे बड़ा खेल हालांकि, चीन के करीबी माने जाने वाले अनुरा (एकेडी) ने किया. इसी साल फरवरी के महीने में एकेडी ने राजधानी दिल्ली का दौरा कर जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवल से मुलाकात की थी.
साफ है कि भले ही श्रीलंका में राष्ट्रपति कोई भी बन जाए लेकिन भारत से संबंधों को नकारने की गलती शायद ही कर पाए.
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