आसमान में दुश्मन के फाइटर जेट और हेलीकॉप्टर से लेकर ड्रोन जैसे स्मॉल टारगेट तक को डिटेक्ट करने वाली स्वदेशी रडार ‘अश्विनी’ के लिए रक्षा मंत्रालय ने भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) से 2906 करोड़ रूपये का करार किया है. इस रडार को रक्षा मंत्रालय ने भारतीय वायुसेना के लिए खरीदा है और इनका इस्तेमाल एंटी एयरक्राफ्ट गन सहित एयर डिफेंस के लिए किया जाएगा.
लो-लेवल ट्रांसपोर्टबेल रडार है अश्विनी
बुधवार को रक्षा सचिव राजेश कुमार सिंह की मौजूदगी में रक्षा मंत्रालय और बीईएल ने इस करार पर हस्ताक्षर किए.
रक्षा मंत्रालय के मुताबिक, अश्विनी एक लो-लेवल ट्रांसपोर्टबेल रडार (एलएलटीआर) है जिसे डीआरडीओ की इलेक्ट्रॉनिक्स एंड रडार डेवलपमेंट एस्टेब्लिशमेंट (लैब) ने तैयार किया.
इस रडार के उत्पादन की जिम्मेदारी बीईएल के हवाले है. ऐसे में इस रडार के जरिए वायुसेना की क्षमता में काफी वृद्धि होने की संभावना है.
साथ ही इस तरह के प्रोजेक्ट के जरिए विदेशी हथियारों और सैन्य साजो सामान पर निर्भरता कम होगी तो रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ेगी.
200 किलोमीटर तक रेंज है अश्विनी की, ड्रोन को ढूंढ लेगी 150 दूर तक
एलएलटीआर (अश्विनी) एक एक्टिव इलेक्ट्रोनिक स्कैंड ऐरे रडार है और स्टेट ऑफ द आर्ट सोलिड टेक्नोलॉजी पर आधारित है. जानकारी के मुताबिक, अश्विनी की रेंज करीब 200 किलोमीटर है.
अश्विनी का आरसीएस यानी रडार क्रॉस सेक्शन दो स्क्वायर किलोमीटर है. ऐसे में किसी छोटे यूएवी (अनमैन्ड एरियल व्हीकल) को ये रडार, 150 किलोमीटर दूर से ही डिटेक्ट कर सकती है. डीआरडीओ की मानें तो रडार की आसमान में 15 किलोमीटर की रेंज है. साथ ही रडार को रोटेशन और स्टेयरिंग मोद, दोनों में इस्तेमाल किया जाता है.
मंगलवार को मॉस्को पर हुआ 330 ड्रोन से अटैक
आधुनिक युद्ध में ड्रोन वॉरफेयर का जमकर इस्तेमाल हो रहा है. खास तौर से छोटे ड्रोन को काउंटर करना एक बड़ी चुनौती है. मंगलवार को रूस की राजधानी मॉस्को पर यूक्रेन ने एक साथ 300 से भी ज्यादा ड्रोन्स के जरिए बड़ा अटैक किया.
रूस की एडवांस रडार और काउंटर सिस्टम के जरिए बड़ी संख्या में इन ड्रोन को आसमान में ही तबाह कर दिया गया. फिर भी हमलों से मॉस्को की कई बिल्डिंग को नुकसान हुआ और तीन लोगों की मौत भी हो गई.
हाल ही में सेना ने नैनो-ड्रोन डिटेक्टशन को बताया था बड़ी चुनौती
हाल ही में भारतीय सेना की आर्मी एयर डिफेंस (एडी) के महानिदेशक, लेफ्टिनेंट जनरल सुमेर डिकुना ने नैनो-ड्रोन को डिटेक्ट करना एक बड़ा चुनौती बताया था. क्योंकि इतने कम आरसीएस वाली रडार सिस्टम भारत के पास नहीं है.
जनरन डिकुना के मुताबिक, “अभी तक 0.001 स्क्वायर मीटर के आरसीएस यानी रडार क्रॉस सेक्शन वाली रडार सिस्टम की बेहद कमी है. ऐसे में भारतीय सेना ज्यादा से ज्यादा रडार लगाने पर विचार कर रही है ताकि इस गैप को भरा जा सके.”
चीन के नैनो ड्रोन का आरसीएस है बेहद कम
चीन में निर्मित डीजेआई-मेविक नैनो ड्रोन का रडार क्रॉस-सेक्शन 0.001 स्क्वायर मीटर ही है. यही वजह है कि आर्मी एयर डिफेंस के माथे पर परेशानी की लकीरें हैं.
रूस-यूक्रेन युद्ध में नैनो ड्रोन का इस्तेमाल सर्विलांस से लेकर इंफ्रेंटी सोल्जर्स को टारगेट करने के लिए इस्तेमाल किया गया है. ऐसे ड्रोन का आरसीएस बेहद कम होता है और जल्दी से रडार डिटेक्ट नहीं कर पाती है. ऐसे ड्रोन के चलते जंग के मैदान में बड़ी संख्या में रूसी सैनिकों की जान गई है. सोशल मीडिया पर कई ऐसे वीडियो वायरल हुए हैं जहां रूसी सैनिक इन लोएटरिंग म्युनिशन के खौफ से अपनी ही जान लेने के लिए मजबूर हो गए हैं.
स्वदेशी कंपनियां जुटी हैं लो आरसीएस रडार बनाने में
लेफ्टिनेंट जनरल डिकुना ने बताया था कि हाल ही में सेना ने कुछ स्वदेशी कंपनियों को ऐसे कम आरसीएस वाली रडार का फील्ड ट्रायल किया था. आधा-दर्जन से ज्यादा ऐसी स्वदेशी कंपनियों ने आगरा में ट्रायल दिया था. लेकिन किसी भी कंपनी के रडार का आरसीएस 0.01 स्क्वायर मीटर से कम नहीं था.
टेक्टिकल-स्तर पर देश की एयर डिफेंस की जिम्मेदारी संभालने वाली आर्मी एयर डिफेंस की कोशिश है कि ऐसे में ‘लो लेवल लाइट वेट रडार’ (ट्रिपल एल रडार) का जल्द से जल्द ‘इमरजेंसी रूट से अधिग्रहण’ किया जाए.
नैनो ड्रोन को डिटेक्ट करने वाली रडार की तलाश
जनरल डिकुना ने इस बात पर भी चिंता जताई कि भारतीय सेना के पास अभी तक ऐसी रडार नहीं हैं जो पुख्ता तौर से बता सके कि ऐसे नैनो ड्रोन, कॉम्बैट हैं या नहीं. यानी कि नैनो ड्रोन किसी बम या ग्रेनेड से लैस है.
डीजी, एएडी ने हालांकि, ये जरूर कहा कि नैनो ड्रोन को अमूमन सर्विलांस के लिए ही इस्तेमाल किया जाता है. क्योंकि इतने छोटे ड्रोन को आर्म्ड करना यानी कॉम्बैट ड्रोन में तब्दील करना थोड़ा मुश्किल होता है.
जनरल डिकुना के मुताबिक, पर्वतीय इलाकों और घाटी में ज्यादा से ज्यादा रडार की जरूरत होती है. साथ ही ऐसे रडार की सख्त जरूरत है जो 6-7 किलोमीटर दूर से ही ड्रोन को डिटेक्ट कर पाए. ऐसा इसलिए ताकि सैनिकों को दुश्मन के ड्रोन को इंगेज करने के लिए पर्याप्त समय मिल पाए.